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मुलाचार प्रदीप ]
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[ पंचम अधिकार
मकर
हैं इसके सिवाय इस धनको चोर चुरा ले जाते हैं शत्रु हो जाते हैं। ऐश्वर्य से उत्पन्न हुए मदका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। यह सुन्दर रूप रोग क्लेश विष और शास्त्राविक के द्वारा क्षणभर में नष्ट हो जाता है । यही समझकर बुद्धिमानों को कभी भी अपने रूपका मद नहीं करना चाहिये ।।७६-७७ ।।
ज्ञान, तप, बल, कलाओं के मद त्याग की प्रेरणा
पूर्वाध संख्यां विविश्वाश्रीजिनागमे । किचिन्छ तपरिज्ञाय नादेयस्तन्मदः पचि ॥७८॥ जोग्यादिमहाघोरतपो विधीन्सुयोगिनाम् । प्राक्तनान भुवा ज्ञात्वा तव्यस्तत्कृतो मदः ॥ ७६ ॥ जिन क्रिमहर्षीणाम प्रमाणं महाबलम् । विदित्वा स्वबलस्यात्र न कार्यों बलिभिर्मदः ॥८०॥ शिल्पित्वं विविषं ज्ञात्वा विज्ञान लेखनाविजम् । जातुशिल्पम दोनाश्रविद्ये योज्ञान शालिभिः ॥८१॥
अर्थ - जैन शास्त्रों से ग्यारह अंग और चौवह पूर्वो की संख्या समझकर थोड़े से श्रुतज्ञान को पाकर उसका मद कभी नहीं करना चाहिये। पहले के मुनि उग्र-उम्र तप महा घोर तपश्चररण का मद भी प्रसन्नता पूर्वक छोड़ देना चाहिये । भगवान तीर्थकर परमदेव का बल भी बहुत अधिक है, चक्रवर्ती का बल भी बहुत है और महर्षियों का बल भी बहुत है, यही समझकर बलवान् पुरुषों को अपने अधिक बलका मद कभी नहीं करना चाहिये । इस संसार में विज्ञान और लेखन श्रादि की कलाऐं भी अनेक प्रकार की हैं उन सबको जानकर ज्ञानी पुरुषों को उन कलाओं का मद भी कभी नहीं करना चाहिये ।।७८-८१ ।।
मद करने से हानि और कण्ठगत प्राण रहने पर भी मद नहीं करने का उपदेश - एतेष्ठमा frer frलकर्मकराभुवि । इन्धमंध्वंसकाहेयाः शत्रवोत्रेय पंडिलः ॥६२॥ मदाष्टकमिदं यत्र विधत्ते मूढषीयंतिः । तेनहत्यावृणादीन् सः मीचयोनोश्चिरंवेत् ॥८३॥ विज्ञायेति न कर्तव्योमदो आलु गुणान्वितैः । सज्आश्या विषु सर्वेषु सत्सु प्रारणात्ययेध्य हो ॥ ८४ ॥
अर्थ - ये प्राठों मद अत्यन्त निद्य है निद्यकर्म करनेवाले हैं और सम्यग्दर्शन रूपी धर्मको नाश करनेवाले शत्रु हैं । इसलिये विद्वान् लोगों को इन सबका त्याग कर देना चाहिये । जो अज्ञानी पुरुष इन आठों मदोंकी धारण करते हैं वे सम्यग्दर्शन आदि transो नष्ट कर चिरकाल तक नीच योनियों में परिभ्रमण करते रहते हैं । यही समटकर गुणी पुरुषों को कंठगत प्रारण होने पर भी जाति आदि का मद कभी नहीं करना चाहिये ||२८४ ।।