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मूलाचार प्रदीप]
( २५३ )
पंचम अधिकार सम्यग्दृप्रत्मकंठस्थो निर्षनोपि जगत्त्रये । उच्यते पुण्यवान् सद्भिः स्तुस्पः पूज्योमहाधनी ॥१६००॥
यतोत्रकभवेसौख्यं दुःखका कुरुलेधनम् । इहामुत्रच सम्यक्त्वं केवलंसुखपूजितम् ॥१६०१।। सम्यक्त्वेग समं वासो नरकेपियरंसताम् । सम्यक्त्वेन विनामनिवासोरायतेविवि ॥१६०२।। यतः स्वभ्राद्विनिर्गत्यक्षिपित्वाप्राक्तनाशुभम् । सम्यग्दर्शनमहारस्यासोर्थनायो भवेत्सुधीः ।।१६.३॥ सम्यक्त्वेन विनादेवा प्राध्यानं विवाय भोः। दिवाश्च्युस्वा प्रजायन्तेम्यावरेष्यत्रतत्फलात् ॥४॥ सम्यग्दृष्टिगंहस्थोपि कुर्वन्नारंभमंजसा । पूजनोयो भवेल्लोकेननाविपतिभिः स्तुतः ॥५॥
दृष्टिहीनोभवेत्साधुः कुर्वन्नपि तपोमहत् । दृष्टिशुद्ध सुरमत्यनिदनोथः पदेपरे ।।६।। नाहमिन्द्रतीर्थशालोमान्तिकमहात्मनाम् । बलादीनांपदान्यन्नमहान्ति वसुरालये ॥७॥ यानि तानि न लभ्यन्ते कुर्वद्भिः परमं लपः। मुनिभिश्वधिनावृष्टिं संयमानखिलेः परः ॥८॥
अर्थ-यदि चौडाल भी सम्यादर्शन से सुशोभित हो तो गणधरादिक देव उसको होनहार मुक्ति रूपी स्त्री का स्वामी और इसीलिपे देव कहते हैं । जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन रूपी रत्न शोभायमान है वह यदि निर्धन हो तो भी सज्जन पुरुष उसको तीनों लोकों में पुण्यवान कहते हैं उसको पूज्य समझते हैं उसकी स्तुति करते हैं और उसको महाधनी समझते हैं । इसका भी कारण यह है कि धन इसी एक भव में सुख वा दुःख देता है परंतु सम्यग्दर्शन इस लोक और परलोक दोनों लोकोंमें सर्वोत्कृष्ट सुख देता है । सज्जन पुरुषों को इस सम्यग्दर्शन के साथ-साथ नरक में रहना भी अच्छा है परंतु सम्यग्दर्शन के बिना स्वर्ग में निवास करना भी सुशोभित नहीं होता। इसका भी कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि पुरुष नरक में से निकल कर तमा उस सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से पहले के समस्त अशुभ कर्मों को नाशकर महा बुद्धिमान तोयंकर हो सकता है । परंतु बिना सम्यग्दर्शन वेव पासष्यान धारण कर लेते हैं और फिर मिथ्यात्व के माहात्म्य से स्वर्गसे पाकर स्थावरों में उत्पन्न होता है । सम्यग्दृष्टि पुरुष गृहस्थ होकर भी तथा प्रारंभ करता हुआ भी इन्द्र नरेन्द्र प्रादि सबके द्वारा पूजनीय होता है और सब उसकी स्तुति करते हैं । परंतु साधु होनेपर भी जो सम्यग्दर्शनसे रहित है बह घोर तपश्चरण करता हुआ भी शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करनेवाले देव और मनुष्यों से पद-पद पर निदनीय माना जाता है । इन्द्र अहमित्र तीर्थकर लोकांतिक बलभद्र आदि के जो जो सर्वोत्कृष्ट पद हैं वे बिना सम्यग्वर्शन के परम तपश्चरण करते हए भी तथा समस्त संयमादिकों को धारण करने पर भी मुनियों को भी कभी प्राप्त नहीं होते। ॥१५९६-१६०८॥