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मूग्नाचार प्रदीप ]
( २४६ )
[पंचम अधिकार अर्थ-विवेकी पुरुष इन दोनों प्रकार की विचिकित्सात्रों का जो त्याग कर देते हैं उसको समस्त संसार को सुख देनेवाला निविचिकित्सा अंग कहते हैं ।।४७।।
___मुनिराज के शरीर से घृणा करने का निषेधमुनीन्द्रसगुणान्सारान् जपथ्यहितकरान् । विश्वासाधारणान ज्ञात्वा सद्गानेत्यज भोघणाम्॥
अर्थ--मुनिराज में समस्त संसार में न होनेवाले अनेक असाधारण सद्गुण हैं वे सब गुरण सारभूत हैं और जगत के समस्त भव्य जीवों का हित करनेवाले हैं। यही समझकर मुनिराज के शरीर को देखकर कभी धूणा नहीं करनी चाहिये ॥४॥
अमूढ़ हष्टि अंगका स्वरूप मूढ़ता त्याग का उपदेशबौदादिसमयसर्थवेदस्मृत्यादिदुःश्रुसे। हरहर्यादिदधे च सग्रंथेकुगुरोखले ॥४६॥ श्रेयोर्थ क्षमावेन भक्तिरागाछ पासमम् । यनिराक्रियतेस्वाभ्यरमूढत्वं तदूजितम् ।।५।। रियेकलोचनेनानपरोक्ष्यनिमिलानमतान् । सारासारांश्च धर्मातीन पूढत्वं हि सर्वथा ॥५१॥
अर्थ-चतुर पुरुष अपने प्रात्माका कल्याण करने के लिये बौद्ध आदि अन्त्य समस्त मतों में, वेद स्मृति प्रादि समस्त अन्य शास्त्रों में, हरि हर प्रादि अन्य देवों में
और परिग्रह सहित समस्त कुगुरुनों में न तो कभी भक्ति करते हैं और न कभी उपासना करते हैं तथा उनकी भक्ति और उपासना दूसरों से भी कभी नहीं कराते उसको श्रेष्ठ अमूददृष्टि अंग कहते हैं। चतुर पुरुषों को विवेक रूपी नेत्रों से समस्त मतों की परीक्षा कर लेनी चाहिये उन सबका सार प्रसार समझ लेना चाहिये धर्मका स्वरूप समझ लेना चाहिये और फिर अपनी मूढ़ता का त्याग कर देना चाहिये ।।४६-५१॥
उपगृहन अंग का स्वरूप और उसके पालने की प्रेरणानिविस्य निसर्गण जिनेन्द्रशासनस्य । पतुःसंघमुनीशान वालाशक्त जमावयः ॥५२॥
प्रातस्थानदोषस्याच्छादनं यद्विधीयते । वक्षनर्नानाविधोपार्यरुपगृहममेवतत् ॥५३॥ निष्कलंकशरण्यं च महच्छोजिनशासनम् । विपित्यागसतोषं छादयन्तु बुधा मृतम् ।।५।।
___ अर्थ-भगवान जिनेन्द्र वेवका कहा हआ यह जिनशासन स्वभाव से ही निर्दोष है, इसलिये उसमें तथा चारों प्रकार के मुनियों के संघमें यदि किसी बालक वा असमर्थ मनुष्य के आश्रय में कोई दोष आ जाय तो चतुर पुरुषों को अनेक उपायों से उसका ग्राम्हादान ही कर देना चाहिये । इसको उपगृहन अंग कहते हैं । यह भगवान जिनेन्द्रदेवका महा जिन सामान निष्कलंक है और शरणभूत है, यही समझकर चतुर पुरुषको