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मुलाचार प्रदीप ]
( २४४ )
[पंचम अधिकार रत्नत्रयमये मोक्षमार्गे शंकावृधोत्तमैः । त्यज्यते या सदासस्यानिःशंकितांग प्रादि भः ॥३४॥
अर्थ--ऊपर कहे हुए समस्त तत्त्वों में, पार्यो में, तीर्थकर परमदेव में, उनके कहे हुए आगम में, निर्गय गुरु में भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुये क्यामय धर्म में और रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग में विद्वान् पुरुषोंको सब तरह की शंकाओं का त्याग कर देना चाहिये । इसको सम्यग्दर्शन का पहला निःशंकित अंग कहते हैं ॥३३-३४॥
तीर्थकरदेव के वचन को ही प्रमाणिक मानने की प्रेरणाकुलाद्रिमेहमूभागक्वचिदंबाच्चलेदहो । न जातुवेशकालेपि वाक्यं श्रीजिनभाषितम् ॥३५॥ इति मत्वात्रसर्वशनिवंगुणसागरम् । प्रमाणोकृत्यतीर्थेशं तद्वाक्येनिश्चयं कुरु ॥३६॥
अर्थ-इसका भी कारण यह है कि कदाचित् दैवयोग से कुलपर्वत वा मेरुपर्वत का भूभाग चलायमान हो सकता है परन्तु किसी भी देश या किसी भी काल में भगवान जिनेन्द्रदेव का कहा हुआ वचन चलायमान वा अन्यथा नहीं हो सकता । यही समझकर और सर्वज्ञ निर्दोष तथा गुणोंके समुद्र ऐसे तीर्थकर परमदेव को प्रमाण मान कर उनके वचनों का निश्चय करना चाहिये ॥३५-३६॥
__सप्तभय व उनके त्याग की प्रेरणा___ इहलोकभयनाम परलोकभवभुवि । अनाणप्तिमरपास्यवेदनाकस्मिकायाः ।।३७।। इमै सप्तभयास्स्याज्या भयकमभवावुधः । वृग्विशुवध विविस्वानुल्लंध्यं भाधिशुभाशुभम् ।।३।।
अर्थ- इस संसार में सात भय हैं इस लोकका भय, परलोक का भय, अपनी अरक्षा का भय, मृत्यु का भय, वेदना वा रोग का भय, प्राफस्मिक भय और परकोटा आदि के न होने से सुरक्षित न रहने का भय ये सातों भय, भय नाम के कर्मसे उत्पन्न होते हैं इसलिये सम्यग्दर्शन को विशुद्ध रखने के लिये बुद्धिमानों को इन सातों भयोंका स्याग कर देना चाहिये । क्योंकि जो होनहार शुभ तथा अशुभ है उसको कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकला ॥३७-३८॥
निकाक्षित अंग का स्वरूपयह पुत्रकलाश्रीराज्यभोगाविशर्मसु । प्रमुखस्वर्ग को वाहमिन्द्रादिपयेषु च ॥३६॥
फुदेवश्रुतगुर्वादो कुधर्मवारिनिर्जये । षर्मायमूहभावेनसपोधर्मफलादिभिः ॥४०॥ या निराक्रियतेमिल्पंदुराकांक्षाविरागिभिः । तनि.कांक्षायं सारं टंग स्पर्मुक्तिभूतिवम् ।।४१॥
अर्थ-वीतरागी पुरुष धर्म के लिये किये हुए तपाचरण आदि धर्मके फल से