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मूलाचार प्रदीप
( २३६)
[पंचम अधिकार सकता तब तक वह संसाररूपी वनमें ही घूमता रहता है और तब तक वह कभी सुखो नहीं हो सकता ।।६७-६६॥
रत्नत्रय रूपी शस्त्र से कर्मबन्ध नष्ट करने की प्रेरणाविज्ञायेतिपयलेन मुक्तिकामाः स्वमुक्तये । रत्नत्रयायुधेवछिवन्तु कर्मशास्त्रवम् ।।१५००।।
___अर्थ-यही समझकर मोक्ष की इच्छा करनेवाले पुरुषों को स्वयं मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रयत्न पूर्वक रत्नत्रयरूपी शस्त्र से कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट कर डालना चाहिये ।।१५००॥
भावसंवर का स्वरूप और उसके कारणचतन्यपरिणामो यः कर्मानवनिरोधकः । स्वात्मध्यानरतः शुद्धो भावसंवर एव सः ॥१५०१।।
त्रयोदशविघं वृत्तं धर्मा दश विधोमह न् । अनुप्रेक्षाविषडमेवाः परीषहजयोखिसः ।। १५०२।। चारित्रं पंचषा योगा ध्यानाध्ययनवक्षता। सपो यमाविका एते भावसंघरकारिणः ।।१५०३॥
अर्थ- कर्मोके आस्रव को रोकनेवाला जो प्रात्माका शुद्ध परिणाम है अथवा ध्यान में लीन हुआ जो अपना शुद्ध प्रात्मा है उसको भावसंवर कहते हैं । तेरह प्रकार का चारित्र, वश प्रकार का सर्वोत्कृष्ट धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएं, समस्त परिषहों का जीतना, पांच प्रकारका चारित्र, योग ध्यान और अध्ययन की चतुरता, तप यम नियम आदि सब भावसंवर के कारण हैं ॥१५०१-१५०३३
भावसंबर से ही दीक्षादि की सार्थकता-- संवरः कर्मणां यस्यमुनेर्योगादिनिप्रहै: । तस्यैव सफलं जम्मसार्थाबीक्षा शुभंशिवम् ।।१५०४।।
अर्थ-जो मुनि अपने मन-वचन-फाय के योगों का निग्रह कर कर्मोका संवर करता है उसीका जन्म सफल समझना चाहिये उसी की वीक्षा सार्थक समझनी चाहिये और उसी को शुभ मोक्षको प्राप्ति समझनी चाहिये ॥१५०४॥
भावसंथर के अभाव में दीक्षादि की निरर्थकताअक्षमः संवरं कर्तुं यो यतियोंगचंचलः। तस्य जातु न मोक्षोतांगकलेशस्तुषलाहमम् ॥५॥ सन्नद्धः संगरेय-वटोहन्ति रिपून बहम् । तद्वत् संवरितो योगी कर्मात्रातीस्तपोवलात ॥६॥ संवरेणविनापुसा था दीक्षा तपोखिसम् । यत: कर्मात्रवेणंव बद्धते संसतिस्तराम् ॥७॥
अर्थ-जो मुनि अपने योगों की चंचलता के कारण कर्मों का संवर करने में असमर्थ है उसको कभी भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती ऐसी अवस्था में उसका तप