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मूलाचार प्रदीप
( २१८)
[चनुथं अधिकार त्यजन्ति ते लभन्तेत्र दुःखं वाचामगोचरम् । अमुत्र श्वभ्रमत्यावौ व्रतभंगोत्धपापतः ।।५।।
___ अर्थ -- ये मूलगुण तीनों जगत की लक्ष्मी और समस्त सुख देनेघाले हैं ऐसे इन मूलगुणों को भगवान अरहंतदेव, संघ, श्रुत और सद्गुणों की साक्षी पूर्वक ग्रहण करके ओ छोड़ देते हैं वे व्रत भंग होने के कारण उत्पन्न हुए पापों से वाणी के अगोचर ऐसे महा दुःखों को प्राप्त होते हैं तथा परलोक में नरकादिक दुर्गतियों में महा दुःख भोगते हैं ॥५५-५६॥
मूलगुण पालन करने की पुनः प्रेरणाइहैव चोत्तमाचार स्याताना दुधियां बुधैः। विधीयतेपमानं च सवत्राहो शुनामिव ॥५७11 मत्वेसि यमिनो नित्यं सर्वयत्नेन सर्वचा। सर्वत्र पालयमस्वत्र विश्वान्मूलगुणानपरान् ॥५॥ शशांकनिर्मलानसारान् स्वप्नेपि मा स्पनु प । घोरोपसर्गरोगाचं : पक्षमासादिपारणः ।।५६।।
अर्थ-जो मूर्ख लोग उसम आचरणों का त्याग कर देते हैं उनके कुत्ते के समान अपमान सर्वत्र बुद्धिमान लोग करते हैं। यही समझकर मुनियों को सर्वोत्कृष्ट ये समस्त मूलगुण पूर्ण प्रयत्न के साथ सर्वत्र सर्वथा सदा पालन करते रहना चाहिये । ये मलपुण चन्द्रमाके समान निर्मल हैं और सर्वोत्कृष्ट हैं । इसलिये घोर उपसर्गके आने पर वा रोगादिक के हो जानेपर अथवा पक्षोपवास, मासोपवास को पारणा होनेपर भी स्वप्न में भी इन मूलगुणों को कभी नहीं छोड़ना चाहिये ।।५७-५६।।
मूलगुणों में अतिक्रमादि लगाने का निषेधतथामूलगुणानां च न कर्तव्यो ह्यप्तिकमः । व्यति कमोप्यतीचारो नाचारः संयस क्वचित् ।।६०।।
अर्थ- इसी प्रकार इन मलगुणों में न तो अतिकम लगाना चाहिये न व्यतिक्रम लगाना चाहिये न अतिचार लगाना चाहिये और न अनाचार लगाना चाहिये । ॥६॥
अतिक्रम का स्वरूपअहिंसादि व्रतानां च षष्ठावश्यक कर्मणाम् । पालने या मनः शुद्धोनिः सोलि कमोयतः ।।६१।।
अर्थ-- अहिंसाविक महाव्रतोंके पालन करने में तथा छहों आवश्यकों के पालन करने में जो मनको शुद्धता की हानि है उसको अतिक्रम कहते हैं ॥६१५॥
यनिक्रम का स्वरूपपडावश्यक कस्तॄणां महावत घरात्मनाम् । विषयेष्व भिलापो मो जायते स व्यतिक्रमः ॥६२।।