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मूलाचार प्रदीप ]
( २१७)
[ चतुर्य अधिकार एक भक्त मुलगुण की महिमाविषयसफर जालं सत्तपोखिहेतु सुरगति शिवमार्ग चान्नसंज्ञाबितूरम् । श्रुतवनमहाध्यानांगयोगादि कतुं भजत विगत कामा एकभक्त शिवाय ॥१३५०।।
अर्थ-यह एक भुक्त व्रत विषयरूपी मछलियों के लिये जाल है, श्रेष्ठ तपश्चरण की वृद्धिका कारण है, स्वर्ग मोक्षका मार्ग है, पाहार संज्ञासे दूर है और श्रुतज्ञान तथा महाध्यान के अंगभूत योगको उत्पन्न करनेवाला है । इसलिये इच्छाओं का त्याग करने वाले तपस्चियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये इस एक मुक्त व्रत को अवश्य पालन करना चाहिये ॥१३५०॥
२८ मूलगुण की महिमा व उसके पालन करने की प्रेरणाएते मूलगुणाः सारा अष्टाविंशतिरूजिताः । सपो विश्वमहायोगाधारभूता जिनोविताः ॥११॥ सर्वोसर गुणाधाप्रपे गुणानां मूलहेलद।। प्राणान्तेपि न मोक्तव्या बुधैः सर्भिसिद्धिदाः ॥५२॥
अर्थ-ये अट्ठाईस मूलगुरण सर्वोत्कृष्ट और सारभूत हैं तथा भगवान जिनेन्द्रदेव ने इनको तपश्चरण आदि समस्त महा योगों के आधारभूत बतलाये हैं । समस्त उत्सरगुणों की प्राप्ति के लिये ये गुण मूलरूप हैं मूल कारण हैं और समस्त पुरुषार्योंकी सिद्धि करनेवाले हैं इसलिये बुद्धिमानों को कंठगत प्रारण होनेपर भी इनका त्याग कभी नहीं करना चाहिये ॥५१-५२॥
मूलगुण के बिना पत्तरगुण फलदायी नहींकृत्स्नोत्तरपुणा यस्मादीना। मूलगुणःसताम् । परं फलं न कुर्वन्ति मूलाहीना यथाघ्रिपाः ॥५३॥
__अर्थ-जिसप्रकार मूलरहित वृक्षों पर कोई किसी प्रकार का फल नहीं लगता उसी प्रकार सज्जनों के मूलगुणों से रहित समस्त उत्तरगुण कभी फल देनेवाले नहीं हो सकते ॥५३॥
मूलमुणों को नष्ट करके उत्तरगुण पालने का दृष्टान्त पूर्वक निषेध -- येत्रोत्तरगुणाधाप्य त्यजन्ति मूलसद्गुणान् । ते करांगुलिकोट्यर्थ छिदन्ति स्वशिरः शठाः ॥
प्रर्थ-जो मूर्ख उत्तरगुण प्राप्त करने के लिये मूलगुणोंका त्यागफर देते हैं वे लोग अपने हाथकी करोड़ों उंगलियां बढ़ाने के लिये अपने मस्तकको काट डालते हैं ।।५४॥
व्रत भंग दुःख का कारणइमान्मूलगुणान्सर्वान् श्रिजगच्छीसुखप्रदान् । साक्षी कृत्य गृहीत्वा जिससंह भुतसारून ।।५।।