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मूलाचार प्रदीप
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[j चतुर्य अधिकार स्थिति भोशनः मूलगुणा को महिमापरमगुणासमुद्रं व्यक्त वीर्याविकार जिनमुनिगसाध्य धीरयोगोदाम्यमः। रहितनिखिल दोषं स्वाक्षजिह्वानिधारिखमिह कुक्त वक्षाभोजनं स्वोर्ड कायम् ।। ४४।।
अर्थ-यह स्थिति भोजन परम गुणोंका समुद्र हैं, अपनी शक्तिको प्रगट करत वाला है, तीर्थकर मुनिराज, और गणवरदेव भी इसकी सेवा करते हैं, धीर वीर मुनि ही इस गुणको पालन कर सकते हैं। यह समस्त दोषों से रहित हैं और जिह्वा इंद्रिय. रूपी अग्निको दमन करने के लिये: मेघ के. समान हैं। इसलिये चतुर पुरुषों. को, खड्डे होकर हो पाहार ग्रहण करना चाहिये ।।१४:४।।।।
एमय भात मूलगुण का स्वरूपानाडीत्रिकबिहायात्रोदयास्तमनकालयोः ।। एकद्वित्रमहांका। मध्ययोजनं भवि ॥४ा. क्रियतेमुनिभिर्योग्यकाले, धावक सचनि । एकस्मोनिजवेलायाभेक मुक्त तदुच्यते ॥४६॥
अर्थ----मुनिराज सूर्योदय के तीन घड़ी बाद और सूर्य अस्त होने से तीन घड़ी पहले तक.योग्य. काल में श्रावक के घर जाकर एक ही बार एक मुहूतीको मुहूर्त का तीत मुहूर्त, के भीतर-भीतर तक आहार लेते हैं उसको एफ मुक्त नापका मूलगुणः करके हैं ।।४५-४६॥
___ एक भक्त मूलगुण से लाभ और इस नत भंग ने हामि---- एकभक्तेन चानादेसुराशानाशमिच्छति। संतोषस्तपसासाद बद्ध ते योगिनां महान् ।।४।। एकभक्तस्यभंगेन प्रणश्यस्य खिला: गुणाः। तन्नाशतः परं पाप:पापाइदुःखमहन्मणाम् ।।४।।
अर्थ-एकबार पाहार करने से.अन्नाद्रिक की दुराशा नष्ट हो जाती है और योगियों का महान संतोष तपश्चरण के साथ-साथ वृद्धिको प्राप्त हो जाता है । इसाएक भक्त दलका: भंग करने से समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं गुणोंके नाश होने से पाप. उत्पन्न होता है और उस पाप से. मनुष्यों.को. महा दुःख भोगने पड़ते हैं ।।४७-४८;
दूसरी.बार; जल ग्रहण का भी निषेधमावेति संयतरेक वेसां गोचरगोचरम् । मुक्त्वा पानादि में ग्राह्य तीव्रयाहनाविषु ॥४ा
अर्थ:-यही समझकर मुनियों को तोव वाह वा उवर प्रादि के होने पर भी पाहार के योग्य ऐसे. एक समयको छोड़कर दूसरी बार कभी जल भी ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥४६॥