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मूलाचार प्रदीप ]
( २१४ )
[ चतुर्थ अधिकार दन्त धावन त्याग की प्रेरणा--- मत्वेति यसयो नित्यं त्यजन्तु दूरतोखिलम् । मुखप्रक्षालनांगादिसंस्कारदस्तपावनम् ॥३०॥
अर्थ-यही समझकर मुनियों को मुखप्रक्षालन करना, शरीर का संस्कार करना, दंतधावन करना प्रादि सबका त्याग दूरसे ही सदा के लिये कर देना चाहिये । ॥३०॥
अदन्त श्रावन की महिमाशम यमदमसौधं वीतरागस्वमूलं वरयतिगुरण वाद्धि दुविकारावि दूरम् । सुरशिवगतिमार्ग त्यक्तसंगा प्रदतवनमपगतदाषं शुद्धये हो भजन्तु ।।३१॥
अर्थ-यह अबंतधावन नामका पुरण समतापरिणाम, यम नियम और इन्द्रिय दमनके रहने के लिये राजभवन है, वीतरागता का कारण है, श्रेष्ठ मुनियों के गुणों का समुद्र है, अशुभविकारों से सर्वथा रहित है स्वर्ग मोक्षका कारण है और समस्त दोषोंसे रहित है। इसलिये परिग्रह रहित मुनियों को अपनी आत्मा शुद्ध करने के लिये यह अदंतधावन नामका गुण अवश्य धारण करना चाहिये ॥३१॥
स्थिति भोजन मूलगुण का स्वरूपस्वपादस्थापनो रसृष्टपात्रातृजमाश्रिते । धरात्रिके विशुद्धनीस्थापयित्वासमी बुधः ॥३२॥ पाणिपात्रेण कुड्यादीननाश्रित्यान्यधामनि । अशनं भुज्यते शुद्ध यसत्स्यास्थिति भोजनम् ।।
अर्थ-अपने पैरों के रखने के बाद बच्ची हई भूमि में दाप्ता वा बर्तन प्रादि पाहार सामग्री के रखने की जगह हो ऐसी तीन प्रकार की विशुद्ध पृथ्वीपर अपने दोनों पैरों को समान स्थापन कर बुद्धिमान मुनियों को दूसरे के घर में जाकर दीवाल आदि के सहारे के बिना खड़े होकर करपात्रमें शुद्ध भोजन लेना चाहिये इसको स्थिति भोजन नामका मूलगुण कहते हैं ॥३२-३३॥
स्थिति भोजन के गुणस्थितिभोजनसारेण व्यक्त धीर्य प्रजायते । पाहारगृद्धिहानिश्च जिह्वायाति वशं सताम् ॥३४॥
निविष्ट भोजने नवाहारसंशा छ बर्द्धते । लोपटच रसमाक्षारणामिह वषयिके सुखे ॥३५॥ । कातरस्य यतोमो प्रतिशेमा परा सताम् । पाण्योः संयोजनं यावलियरी पादौ ममस्थितौ ॥३६।। तामगृह्वामि चाहारमन्ययानशनं परम् । इत्यादिगुणसंसिस स्थितिभोजनमूनितम् ॥३७॥
अर्थ- इस सारभूत स्थिति भोजन से सज्जन पुरुषों को सामर्थ्य प्रगट होतो