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मुलाचार प्रदीप ]
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शास्त्र पठन के लोभसे श्रावश्यक नहीं करने से हानियायावश्यक साराणि तानि योगतधीर्यति । होनाति कुरुले मूढः शास्त्रपाठाविलोभसः ॥५५॥ तस्मात्पलायते बुद्धिवं तस्वढौंकते । इहामुत्रसुखंनश्येव व्रतादिसद्गुणैः समम् ॥५६ ।।
[ चतुर्थ अनिकाय
अर्थ- जो बुद्धि रहित मूर्ख मुनि शास्त्रों के पठन-पाठन के लोभसे सारभूत समस्त आवश्यकों को पूर्णरूप से नहीं करता है, कर्म करता है उसको बुद्धि दूर भाग जाती हैं मूर्खता उसपर सवार हो जाती है और व्रत आदि श्रेष्ठ गुणोंके साथ-साथ इस लोक और परलोक दोनों लोकों के उसके समस्त सुख नष्ट हो जाते हैं ।। ५५-५६ ।।
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आवश्यक करने के पश्चात् ही अन्य कार्यों की प्रेरणा
मरति योनिः पूर्वं कृत्यावश्यक मंजसा । ततः पठन्तु शास्त्रावीन् बैः स्युः सर्वार्थसिद्धयः ||५७ ॥ अर्थ - यही समझकर योगी पुरुषों को सबसे पहले आवश्यक करने चाहिये और फिर शास्त्रादिक का पठन-पाठन करना चाहिये। ऐसा करने से ही समस्त पदार्थों की सिद्धि होती है ॥१५७॥
बिना श्रावश्यक के मोक्ष प्राप्ति असम्भव -
विनात्रावश्यक धीरावासमोहतेशिवे । कायक्लेशेन गंतु स मेवं चरणादृते ॥ ५८ ॥
अर्थ- जो धीर वीर रहित मुनि बिना आवश्यकों के केवल काय क्लेशके द्वारा मोक्ष चाहते हैं । वे बिना पैरों के मेरुपर्वत पर चढ़ना चाहते हैं ||५८ ॥
धर्मके बिना कार्य की प्रसिद्धि-
jarat यथा हस्तीवंष्ट्रा होनो मृगाधिपः । स्य धर्मोजनो जातु न क्षमः कार्यसाधने १२५६ ॥
अर्थ - जिसप्रकार टूटे दांत वाला हाथी अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता बिना डाढ़ों के सिंह अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता उसी प्रकार धर्म रहित मनुष्य भी कभी अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता ॥ ५६ ॥
दृष्टान्तपूर्वक आवश्यक बिना कर्म के नाश नहीं
तथावश्यकहीनश्च यतिः क्वचिप्रजायते । कुशलो वा समर्थो नम्वर्गमोक्षादिसाधने २६०॥ पांगर हिलो पारीन् हंतु क्षमो नृपः । कर्मातीन् भुनिस्तद्वदावश्यक क्लातिगः ।। ६१ ।।
अर्थ -- इसी प्रकार आवश्यक रहित मुनि भो स्वर्ग मोक्ष को सिद्धि करने में कभी कुशल वा समर्थ नहीं हो सकते। जिसप्रकार राज्य के अंगों से रहित राजा अपने