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मूलाचार प्रदीप]
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[चतुर्थ अधिकार अर्थ-क्योंकि अपनी शक्तिके अनुसार किया हुश्रा कायोत्सर्ग जगतके सज्जन में पुरुषों को महा फलका कारण होता है इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ।।४।।
कायोत्सर्ग विना शारीरिक बल को निस्सारतामान्य वलिन प्रमादेशमा पुगी सामना मवेशेषां ध्यर्थं अंधावलादिकम् ।।४४॥
अर्थ- जो मुनि समर्थ और बलवान होकर भी प्रमाद के कारण कायोत्सर्ग नहीं करते हैं उनको जंघा का बल ध्यर्थ ही समझना चाहिये ॥४४॥
कायोत्सर्ग में प्रभाव त्याग की प्रेरणामत्वेति कर्मनाशाय कायोत्सर्गो भवापहः । कर्तव्यः प्रत्यहं धीरः प्रभावन विनाखिलः ।।४।।
अर्थ-यही समझकर धीर वीर पुरुषोंको अपने कर्म नष्ट करने के लिये प्रमाद को छोड़कर संसारको नाश करनेवाला यह कायोत्सर्ग प्रतिदिन करना चाहिये ।।४५॥
___ कायोत्सर्ग की महिमाविश्वापच धर्ममूलं सफलविधिहरं तीर्थनार्यनिषेव्यं मुक्तिश्रीवामदर्शगुणमणिजलषि धोरवीरकगम्यम् । तुःपघ्नं शमलानि कुरुत मुविधिना ध्यानमालष्य पक्षाः
कायोत्सर्गशिवाप्त्ययपुषि जगतिषानिर्ममाषं विधाय ।।४।। अर्थ-यह कायोत्सर्ग संसार भर में मुख्य है, धर्मका मूल है, समस्त कमों को नाश करनेवाला है, भगवान तीर्थकर परमदेव भी इसको धारण करते हैं, यह मोक्षरूपी लक्ष्मी के देने में अत्यंत चतुर है, गुणरूपी मणियों को उत्पन्न करने के लिये समुद्र के समान है, धीर वीर पुरुष हो इसको धारण कर सकते हैं, यह समस्त दुःखों को नाश करनेवाला है और कल्याण की खानि है । ऐसा यह कायोत्सर्ग चतुर पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने शरीर से सथा संसार से ममत्व छोड़कर और शुभध्यान को आलंबन कर विधि पूर्वक अवश्य करना चाहिये ।।४६॥
भावश्यक के नाम की सार्थकता और प्रयत्नपूर्वक पालन की प्रेरणाप्रघमकरणावेते प्रोक्ता प्रावश्यका जिनः । सर्वे सार्थक मामनो योगिनां योगकारिणः ॥४७॥ अथवामुक्तिरामावस्यवशीकरण बुधः। प्रावश्यका महान्तः षडुक्ताः सर्वार्थसाधकाः ॥८॥ ज्ञा वेति परिपूर्णानि दक्षरावश्यकानि षट् । काले काले विधेयानिमहाफलकराण्यमि ॥४६॥
अर्थ-इसप्रकार जो छह प्रावश्यक कहे हैं वे मुनियों को अवश्य करने चाहिये