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मूलाचार प्रदीप]
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[ चतुझं अधिकार शुद्धि प्रगट होती है ।।५॥
स्नान अन्तरंग शुद्धि का कारण नहींमद्यकुम्भा यथा घौता अलः शुद्धा न जातुचित् । तथा मिथ्यावशः स्नानरन्त पापमलीमसाः ।।६।।
अर्थ-जिसप्रकार मद्य से भरा हुआ घड़ा जलसे धोने पर भी कभी शुद्ध नहीं होता उसी प्रकार अंतःकरण के पापोंसे महा मलिन मिथ्या दृष्टि भी स्नान से कभी शुद्ध नहीं हो सकते ॥६॥
मुनि अन्तरंग शुद्धि के कारण सदा निमंल ही होते हैंघृतकुम्भा यथा शुद्धा मलिनाः क्षालनविना । तथान्तः शुद्धिमापना योगिनो निर्मलाः सदा ।।७॥
अर्थ--जिसप्रकार घी का घड़ा ऊपर से मलिन होने पर भी बिना धोने पर शुद्ध माना जाता है उसी प्रकार अंतःकरण में अत्यन्त शुद्धता को धारण करनेवाले मुनिराज भी सदा निर्मल रहते हैं ॥७॥
देह स्नान अन्तरंग शुद्धि का कारण नहींपदि स्नानेन शुद्धिश्चेतहिवंधा विशुद्धये । मूढमत्स्याबयो व्याधा नान्तःधुवाश्चसज्जनाः ।।८।। अत्यन्त मलिनः कायः पूतो नातु न जायते । जलनिसर्गशुद्धोस्ति स्वात्मापूर्व जलायते ॥६॥
अर्थ-यदि स्नान करने से ही शुद्धि मानी जाय तो फिर मूढ पुरुषों को अपनी शुद्धता प्रगट करने के लिये मछलियों की वा धीवरों की वंदना करनी चाहिये । अंतरंग में शुद्धता धारण करनेवाले सजनों की वंदना कभी नहीं करनी चाहिये । देखो यह शरीर अत्यंत मलिन है इसलिये वह जलसे कभी शुद्ध नहीं हो सकता । इसीप्रकार यह अपनी आत्मा बिना जलके स्नान के ही स्वभाव से ही सुद्ध है ॥६॥
चतुर पुरुष स्नान त्याग करते हैं मूर्ख हो इसे स्वीकार करते हैंतस्माद् ध्यर्थं जलस्नानं रागपापाविवर्टकम् । वक्षस्त्यक्त महामूढः स्वीकृतं धर्मरगः ।।१०।।
अर्थ-इसलिये मुनियों के लिये जलसे स्नान करना व्यर्थ है और राग तथा पापों को बढ़ाने वाला है । इसलिये चतुर लोगों ने इसका त्याग कर दिया है और धर्म से दूर रहने वाले महा मूरों ने इसको स्वीकार कर लिया है ॥१०॥
जल से शुद्धि मानने वाला मनुष्य पशु के समान हैसप्तधातुमयेथेहे सर्वाणि कुटीरके । मन्यन्ते ये जलः शुद्धि पशबस्ते नराम ॥११॥
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