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मूलाचार प्रदीप
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[ चतुर्थ अधिकार शत्रुओं को नष्ट नहीं कर सकता उसीप्रकार आवश्यक रूपी अलसे रहित मुनि भी कर्मरूपी शत्रुओं को कभी नाश नहीं कर सकता ।।६०-६१॥
सावश्यक की महिमामरवेति सर्वयस्लेन रत्नत्रयविशुद्धथे । सम्पूर्णानि सवा वक्षा: कुधन्वावश्यकानिषट् ।।६२।।
विश्वाान् विश्वद्याम् शिवसुखजनकान् सबदोषारिहान्, सेव्यान् लाकोसमा गणपरजिनपैः धर्मवाझेननघ्नन् पूतान्सारान् । गुणांकानश्रुतसकलमहाय विकद्धांस्त्रिशुद्धमा पूनिन्नित्यं
प्रयत्नात्कुरुतसुमुनयः षडबिधावस्यकान् भाः ॥१२६३।।
अर्थ- यही समझकर चतुर पुरुषों को अपना रत्नत्रय विशुद्ध रखने के लिये पूर्ण प्रयत्न के साथ समस्त छहों आवश्यक पालन करने चाहिये । ये छहों प्रावश्यक तीनों लोकों में पूज्य हैं, तीनों लोकों में वंदनीय हैं, मोक्ष सुखको देने वाले हैं, समस्त दोषरूपी शत्रुओं को नाश करनेवाले हैं, भगवान जिनेन्द्रदेव वा गणधरवेव आदि संसार के समस्त उत्तम पुरुष इनकी सेवा करते हैं, इनको धारण करते हैं, ये आवश्यक धर्मके स्वरूपको कहनेवाले हैं, पापरहित हैं, पवित्र हैं, सारभूत हैं, अनेक गुणों से सुशोभित है और श्रुतज्ञान के समस्त महा अर्थोंसे भरे हुए हैं । इसलिये हे मुनिराजों मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक पूर्ण प्रयत्न से इन छहों प्रावश्यकों को पूर्ण रीति से सवा पालन करो ।।६२-६३॥
१३ क्रियायें में सारभूत दो क्रियाप्रयोमाक्रियाणां हि मध्ये येनोविते जिनः । निषिद्धिकासिके सारे धुनातेव दिशाम्यहम् ॥६४॥
___ अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने तेरह क्रियाओं में निषिद्धिका और मासिका ये सारभूत दो क्रियाएं बतलाई हैं प्रागे इन्हीं दोनों का स्वरूप कहते हैं ॥६४।।
निषिशिका का स्वरूप और उसकी महिमा-- भवद्योत्र निषिद्धात्मा महायोगोनिसेन्धियः । कषायोगममत्वादी मनोवाकायकर्मभिः ॥६५॥ प्रोक्ता महामुनेस्तस्यसार्थापूज्यानिविरिका । तीर्थ मूसा जगधा धर्मखामिर्गणाधिपः ॥६६॥
अर्थ-जो जितेन्द्रिय महायोगी कषाय और शरीर के ममत्व आदि में मनवचन-काय के तीनों योगों से निषिद्ध स्वरूप रहते हैं कषाय और शरीर ममत्व नहीं करते उन महा मुनियों के पूज्य और सार्थक निषिद्धिका कही जाती है । यह निविद्धिका