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मूलाचार प्रदोप]
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[ चतुर्य अधिकार तीर्थभूत है, जगतबंध है और धर्मकी खानि है, ऐसा गणधरदेवों ने कहा है ॥६५-६६।।
काय, ममत्व घटे बिना निषिद्धिका व्यर्थ-- प्रपरस्यानिषिद्धस्य योगिनाचंचलात्मनः । निषिद्धिकाभिधः शब्दो भवत्येवात्र केवलम् ।।७।।
अर्थ-जिन मुनियों के मन-वचन-काय चंचल हैं और जिनके कषाय और ममत्व घटे नहीं हैं उनके लिये निषिद्धिका शब्द केवल नाममात्र के लिये कहा गया है ।।६।।
नासिका का स्वरूप, ज्याति पूजा की इच्छा करनेवाले के पासिका क्रिया व्यवंइहामुत्राक्षभोगादौख्यातिपूजावि कोतिषु । सर्वाशाभ्योबिनियुक्तो मुक्तिकांक्षी मुनीश्वरः ।।६।। योन सस्थयतीन्द्रस्यासिका संज्ञा जिनोविता । प्राकांक्षिरणोऽपरस्यासिका शब्द: केवलं भवेत् ।।६।।
अर्थ- जो मुनिराज इस लोक और परलोक दोनों लोक संबंधी इन्द्रिय भोगों में तया ख्याति पूजा और कीति में समस्त आशाओं से रहित हैं और जो केवल मोक्ष की इच्छा रखते हैं उन मुनिराजों को प्रासिका संज्ञा भगवान जिनेन्द्र देव ने बतलाई है। तथा जो मुनि भोगादिकों की इच्छा करते हैं अथवा ख्याति पूजा वा कीर्ति की इच्छा करते हैं उनके लिये मासिका शब्द केवल नाममात्र के लिये कहा गया है ।।६८.६६॥
वचन पूर्वक निषिद्धिका प्रामिका करने की प्रेरणायथायोग्गमिमेयुक्त्यं निषिद्धिकासिकेशुमे । त्रयोदशक्रिया सिद्ध कियते वचसा बुधः ॥७०.।
अर्थ-बुद्धिमान पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये तथा तेरह क्रियाओं को सिद्ध करने के लिये यथायोग्य रीति से वचन पूर्वक निििद्धका और आसिका ये दोनों क्रियाएँ करनी चाहिये ॥७॥
केशलोंच का स्वरूप___ इत्यावश्यकमाण्यापयतीनां हितसिद्धये । शेषमूलगुणान् वक्ष्ये लोचारिप्रमुखानहम् ॥७॥ हस्तेनमस्तके कूर्चश्मश्रूगां यतिधीयते । उत्पाटनं विना क्लेशं सद्भिः लोचः स उच्यते ॥७२॥
अर्थ-इसप्रकार यतियों का हित करने के लिये आवश्यकों का स्वरूप कहा अब प्रागे केशलोंच आदि अन्य मूलगुणों को कहते हैं मिनिराज जो बिना किसी क्लेश के अपने हाथ से ही मस्तकके तथा डाढी मूछों के बाल उखाड़ डालते हैं उसको सज्जन पुरुष लोच कहते हैं ॥७१-७२॥
उत्कृष्ट मध्यम जघन्य केशलोंच का स्वरूपकियते यो द्विमासाभ्यां लोचःउस्कृष्ट एव सः । श्रिमासमध्यमस्तुर्यमासजयन्य एव च । ७३।।