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मुलाचार प्रदीप |
[द्वितीय अधिकार चतुविधसुसंघाना, निर्दोषाणां निसर्गतः । जातु दोषरे न वक्तव्यः, प्राणान्तेप्यपसागर: ॥३४०।।
अर्थ-चारों प्रकार का संघ स्वभाव से ही निर्दोष है; इसलिये प्राणों का अन्त समय आने पर भी संघ का दोष नहीं कहना चाहिये; क्योंकि संघका दोष कहना महापाप का कारण है ॥३४०।।
__ मैत्री अादि चारों भावनामों की उपयोगितासर्वसत्त्वेषु कर्त्तव्या, मंत्री धर्मस्वनी परा । प्रमोकः परमः कायों, गुणाधिकतपस्विषु ॥३४१॥ कहलाक्लिष्टजीवेषु, विधेयानुग्रहादिभिः । माध्यस्यं मुनिभिः कार्य, विपरीतजडात्मसु ।।३४२।।
अर्थ-मुनियों को समस्त प्राणियों में धर्म की खान ऐसा मैत्री भाव धारण करना चाहिये सथा जो तपस्वी, अधिक गुणी हैं। उनको देखकर परम प्रमोद धारण करना चाहिये । दुःखी जीवों को देखकर अनुग्रह पूर्वक करुणा धारण करनी चाहिये और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी मनुष्यों में मध्यस्थता धारण करनी चाहिये ।।३४१-३४२।।
शुभ-भावनामों का फलमाभिः सुभावनाभिर्ये, प्रवर्त्तन्तेऽन्वहं बुधाः । लोके भुक्ता इवाहो से, रागाध स्पृशांति न ॥
अर्थ-जो बुद्धिमान, रात दिन इन भावनाओं का चितवन करते हैं; वे इस संसार में मोती के समान रागद्वेष के अंशों को कभी स्पर्श नहीं करते ॥३४३।।
उपसंहारात्मक भाषा का प्रयोगविश्ववहाक्षसौख्यादी, विरक्तिर्जायते यथा । सम्यग्वगशान चारित्र, शमादि गुण राशयः ।।३४४॥ स्वान्येषां च प्रवर्धन्ते, धैर्य सम्पद्यते तरी । सपोयोगावि सिध्यसा भाषा वाघ्या मुमुक्षिभिः ।
अर्थ-मोक्ष की इच्छा करने वाले, मुनियों को तप और ध्यान की सिद्धि के लिये ऐसी भाषा बोलनी चाहिये जिससे कि शरीर और इंद्रियों के सुख से वैराग्य उत्पन्न हो जाय, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र और समस्त शीतता आदि अपने या अन्य लोगों के गुणों को वृद्धि हो जाय तथा सर्वोसम धोरता की प्राप्ति हो जाय । ॥३४४-३४५॥
भाषा समिति की उपयोगितामूलमूतो म जानाति, भाषासमितिमूजिताम् । जिनधर्मस्य यः सोऽत्र, कथं कर्मानवांस्त्यजेत् ॥
अर्थ-जो मुनि जिनधर्म को मूलभूत और सर्वोत्कृष्ट ऐसी इस भाषा समिति