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मूलाचार प्रदीप]
तृतीय अधिकार अर्थ-कोई रूप सचित्त होता है कोई अचित्त होता है और कोई मिश्र होता है तथा स्त्री पुरुषों के रूप गौर वर्ण भी होते हैं तथा अन्य वर्ग भी होते हैं। दिव्य संस्थान को धारण करनेवाले तथा कला नृत्य आदि से सुशोभित स्त्री पुरुषों के रूपको राग पूर्वक न देखना मुनियों का चक्षुनिरोध नामका गुण कहलाता है। यह गुण भी आरबको रोकनेवाला है ।।६०६-६०७।।
किन २ को नहीं देखना चाहिये-- नाना स्त्रोल्पसंस्थान सुश्रृगार मुखादिकान् । वाहून नाटकमेवाश्च कला विज्ञान कौतुकान् ।। अनेक चित्र कर्माधान रामोत्पत्ति करामपि । क्रीडा विनोद बास्यादीन् पश्येज्जातु न संयमी ।।
अर्थ---संयमी मुनियों को अनेक प्रकारको स्त्रियों के रूप, संस्थान, शृंगार या मुख आदि अंगों को नहीं देखना चाहिये। अनेक प्रकारके माटक कला, विज्ञान, कौतुक, राग उत्पन्न करनेवाले अनेक प्रकारके चित्र कर्म, क्रीड़ा, विनोद, हास्य कर्म आदि कभी नहीं देखने चाहिये ।।६०-६०६।।
त को मोहित करने को नहीं देवाला वाहियेब्रम्यकांयम रत्नाव:श्चित्त म्यामोह कारिणः । नेपथ्य पट्टकूलायान् न च पश्यन्ति योगिनः॥
अर्थ-चित्तको मोहित करनेवाले धन, सुवर्ण, रत्न, परदे के भीतरके पदार्थ, वस्त्र वा वस्त्रके किनारे आदि मुनियों को भी नहीं देखना चाहिरे ॥६१०।।
भोगोपभोगके पवित्र और अपवित्र पदार्थों को भी कभी नहीं देखना चाहियेभोगोपभोग वस्तूनि संझा वृद्धि कारिण का पवित्राण्यपविधाणि मालोक्येचमी क्वचित् ।।६११॥
अर्थ-मुनियों को प्राहार भय मैथुन परिग्रह बढ़ाने वाले भोगोपभोगके पवित्र वा अपविन पदार्थों को भी कभी नहीं देखना चाहिये ॥६११॥
रौद्रध्यान उत्पत्र करनेत्राले संग्रामों को नहीं देखना चाहियेभूपसामन्त सैन्यादौन रौतध्यान विधायिमः । कलि संग्राम सोयच विलोकयति मात्मवान् ॥
अर्थ-पाल्पज्ञ पुरुषों को रौद्रध्यान उत्पन्न करने वाले राजा सामंत और उनकी सेना को भी कभी नहीं देखना चाहिये तथा कलयुगके समस्त संग्रामों के वेखने का भी त्याग कर देना चाहिये ॥६१२॥
मिथ्यात्व बर्धक स्थानों को नहीं देखना चाहियेकुदेव लिंगो पारि मठविम्बानि भूतले । कुतोणि कुचाम्पाणि पडनायतनानि च ॥६१३॥