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चतुर्थी धिकारः
मंगलाचरण
पूर्णाकर्ता
ये पंचपरमेष्ठिनः । गुणानामकथयस्तेषां वस्तद्गुणाप्तये ।। १०३६ ।।
अर्थ – जो पांचों परमेष्ठी पूर्ण आवश्यकों के करनेवाले हैं और गुणोंके समुद्र हैं उनके गुण प्राप्त करने के लिये मैं उनके चरण कमलों को नमस्कार करता हूं ।
।।१०३६॥
प्रतिक्रमण का स्वरूप संक्षेप में
प्रवक्ष्ये समासेन व्रतरत्नमलापहाम् । प्रतिकमा नियुक्तिस्वान्येषां मुक्तिसिद्धये ।। १०४०|| अर्थ - अब मैं अपने और दूसरों के मोक्ष की सिद्धि के लिये व्रतरूपी रत्नोंके दोषों को दूर करनेवाले प्रतिक्रमण के स्वरूप को संक्षेप से कहता हूं ।1१०४०॥ व्रतों के दोषों को दूर करनेवाला प्रतिक्रमण होता हैव्यक्षेत्रभिः कृतापराधशोधनम् । स्वनिवागहंगाम्यां सत्क्रिया तत्रमुमुक्षुभिः ॥४१॥ मनोवाक्काययोश्च कृतकारितमाननैः । तत्प्रतिक्रमणं प्रोक्तं व्रतदोषापहं शुभम् ॥४२॥
अर्थ - मोक्षकी इच्छा करनेवाले जो सुनि मन-वचन-काय और कृत कारित अनुमोदनासे द्रव्य क्षेत्र वा भावोंसे उत्पन्न हुए अपराधों को शुद्ध करते हैं अथवा अपनी गर्हा निंदा के द्वारा अपराधों को शुद्ध करते हैं उसको व्रतों के दोषों को दूर करनेवाला शुभ प्रतिक्रमण कहते हैं ।।४१-४२ ।।
प्रतिक्रमण के भी ६ भेद हैं
नामा स्थापना द्रम्यं क्षेत्रकालो निजाश्चितः । भावोमीषघानिक्षेपाः स्युःप्रतिक्रम में शुभाः ॥ अर्थ - यह प्रतिक्रमण भी द्रव्य क्षेत्र काल नाम स्थापना और अपने श्राश्रित रहनेवाले भावों के द्वारा छह प्रकार का माना जाता है ||४३||
नाम प्रतिक्रमण का स्वरूपशुभाशुभादि नामोध जतातीचारशोधनम् । निदार्थ यत्ससतां नामप्रतिक्रमणमेतत् ॥ ४४ ॥ अर्थ – शुभ वा अशुभ नामों से उत्पन्न हुए अतीचारों को अपनी निंदा आदि