________________
मूलाधार प्रदीप ]
( १६७ )
[ नृतीय अधिकार दर्दुर दोषस्वशब्देनाभिभूयान्यशब्वान बहद्गलेन वा । वंदना कुश्ते तस्य दोषो वर्तुर नामकः ॥३२॥
अर्थ-जो मनि अपने ऊंचे गले की प्रावाज से दूसरे मुनियों के शब्दों को दबाता हुअा, तिरस्कार करता हुआ गंदना करता है उसके दषुर नामका दोष लगता है ।।३२॥
धुलुलिस दोषस्थित्वकस्मिन् प्रवेशे यः सर्वेषां पंदनांभजेत् । दोवश्थुलुलिसस्तस्यपत्रमादिस्वरेण का ॥३३॥
अर्थ-जो मुनि एक ही प्रदेश में बैठकर सब मनियों को अंदना कर लेता है अथवा जो पंचम स्वर से ऊंचे स्वर से मंदना करता है उसके चुलुलित नामका दोष लगता है ॥३३॥ ऐले दोषः सदा त्याज्या: कृतिकर्म मसाः । द्वात्रिंशत्सकलेन पहावश्मकसद्धये ।।३।।
अर्थ- मनियों को अपने छहों आवश्यक शुद्ध रखने के लिये पूर्ण प्रयत्न के साथ इन बत्तीस दोषों का सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये क्योंकि ये दोष गंबना में मल उत्पन्न करनेवाले हैं ॥३४॥ अमीषा केनचिद्दोषेण समं कृतिकर्म च । कुर्वन् सर्वभवेनिजराभागी मातुनोमतिः ॥३५॥
अर्थ-जो मुनि इन दोषों में से किसी भी दोष के साथ नंदना करता है यह पूर्ण निर्जरा का भागी कभी नहीं हो सकता ।।३५॥
उपरिलिखित दोप वेदना में मल उत्पन्न करते हैंमत्त्वेत्यमू श्च सदोषान् सम्यकस्ययवासुसंयताः । कुर्वन्तु कृतिकर्माणि सर्वाणि निर्जराप्तये ।।३६।।
___ अर्थ-यही समझकर मुनियों को कर्म की निर्जरा करने के लिये इन समस्त दोषों का त्याग कर कृतिकर्म वा वंदना करनी चाहिये ।।३।।
उच्च पद प्राप्त करने के लिये बंदना सदा करना चाहियेनुसुरजिमयतीनां विश्वसम्पतिखानि वरपदजननी वा सद्गुणाराम वृष्टिम् । अत्तुलसुखनिधिसद्वंदना धर्ममाभ्यां प्रभजत शिक्षकामाः सर्वदोपचापाप्त्यै ॥३७॥
अर्थ-यह वंदना नामका आवश्यक मनुष्यवेव और जिनेन्द्रदेव को समस्त सम्पत्तियों की खानि है, इन्द्राविक श्रेष्ठ पदों को देनेवाली है, श्रेष्ठ पुरणरूपी बगीचे के