________________
मूलाचार प्रदीग]
( १७६ )
[ ऋतुर्थ अधिकार अर्थ- व्य कमबंध की शरमवास है अथवा शुभ हैं ऐसे पदार्थों को तपचरण पालन करने के लिये कभी उपभोग नहीं करना और न दूसरों से कभी उपभोग कराना और मनसे उनके उपभोग करने की अनुमोदना भी नहीं करना, इसप्रकार मुनिराज जो नियम कर लेते हैं उसको उत्तम द्रव्य प्रत्याख्यान कहते हैं ॥४-५॥
क्षेत्र प्रत्याग्यान का लक्षण-- रागवाहत्यकस्तॄणामसंयमप्रवर्तिनाम् । सेवितानां विटस्छ्याय : सदोषविधायिनाम् ॥६॥ क्षेत्राणां दुष्टमिथ्यावृभूतानां परिहापनम् । नियमाघरसता क्षेत्रप्रत्याख्यानं तदुच्यते ।।७।।
अर्थ-जो क्षेत्र अत्यंत राग उत्पन्न करनेवाले हैं, असंयमको प्रवृत्ति करनेवाले हैं, जो व्यभिचारी वा कुट्टिनियों के रहने के स्थान है जो समस्त दोषों को उत्पन्न करने वाले हैं और वुष्ट वा मिथ्यावृष्टियों से भरे हुए हैं ऐसे क्षेत्रोंका नियम पूर्णक त्यागकर देना क्षेत्र प्रत्याख्यान कहलाता है ॥६-७॥
काल प्रत्याभ्यान का वर्णनयच्चवृष्टितुषारादि ब्याप्तकालस्य वर्मनम् । असंयमादि हेतोः कालप्रत्यास्यानमेवतत् ।।
अर्थ-जिस समय वृष्टि पड़ रही हो वा तुषार पड़ रहा हो ऐसे काल का असंयमाधि के डर से त्यागकर देना काल प्रत्याख्यान कहलाता है ॥॥
___ उत्तम भाव प्रत्याख्यान का वर्णनमिथ्यात्वासंयमान प्रमावानां चाशुभारमनाम् कवायवेवहास्याधीनां सर्वेषां जिनेन्द्रियः ।।६।। सर्वथा शुद्धभावेन त्यजनं क्रियते बुधः नियमाश्च यद्भावप्रत्याख्यानं तदुत्तमम् ॥१०॥
अर्थ-जितेन्द्रिय बुद्धिमान पुरुष अपने पूर्ण शुद्ध भावों से नियम पूर्वक मिथ्याय, असंयम, प्रमाद, अशुभ, कषाय, वेर, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा आदि का त्यागकर देते हैं उसको उत्तम भाव प्रत्याख्यान कहते हैं ।।१-१०॥
उक्त छहों प्रकार का प्रत्याख्यान आवश्यक---- एतश्च षड्विधोपायनिक्षेपैः पविषंशुभैः । प्रत्याख्यानं विधातव्यं प्रत्यहं संयमाप्तये ॥११॥
अर्थ-मुनियों को अपना संयम पालन करने के लिये ऊपर लिखे शुभ ग्रहों प्रकारके निक्षेप रूप उपायोंसे छहों प्रकारका प्रत्याख्यान अवश्य करना चाहिये ॥११॥
प्रत्याख्यापक तथा प्रत्याख्यातव्य का स्त्रहपप्रत्यास्याफ्फ प्रात्मात्र यः प्रत्यास्पानमेवयत् । प्रत्यास्पातव्यमन्यादेतेषां विस्तरं वषे ।।१२।।