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मुलाचार प्रदीप ]
( १७७ )
[चतुर्थ अधिकार प्रमादी और अहंकारी मुनि का प्रतिक्रमण व्यर्थ हैप्रमावो योऽथवा ग!मस्था निजं तपोमहत् । मूढधीः प्रत्यहं कुन्नि प्रतिक्रमणाविकम् ||२|| दोषमलीमसं तस्य व्यर्थस्यात्तपोखिलम् । दीक्षा च निष्फला पापसाबा जन्म निरर्थकम् ॥६॥
अर्थ-जो मुनि अपने तपश्चरण को बहुत बड़ा समझकर प्रमादी तथा अहं. कारी हो जाता है और इसीलिये जो मूखं प्रतिदिन प्रतिक्रमण आदि नहीं करता उसका समस्त तपश्चरण दोषों से मलिन रहता है और इसीलिये व्यर्थ समझा जाता है । इसी प्रकार पापों का आत्रव करनेवाली उसकी दीक्षा भी निष्फल समझो जाती है और उसका जन्म भी निरर्थक माना जाता है ॥६२-६३।।
प्रतः पालोचना पूर्वक प्रतिक्रमण अावश्यक हैमत्वेत्यालोचनायुक्त सत्प्रतिक्रमणं विदः । कुर्षन्तु सर्वपत्नेन नित्यं युफ्त्या शिवाप्तये ॥१४॥
अर्थ-इसलिये चतुर पुरुषोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिये पुर्ण प्रयत्नके साथ युक्ति पूर्वक प्रतिदिन आलोचना पूर्वक प्रतिक्रमण करना चाहिये ॥१४॥
मुनियों को प्रतिक्रमण प्रयत्न पूर्वक करना चाहियेसषांनतगुप्सियोगसमितीनां शुद्धिहेतु परमन्तासीतगुणाएममां च शिववं दोषापहं निर्मलम् । पापघ्नं मुनयः कलंकहतकं यत्नरकुरुभ्यं सदा स्वान्तः सुद्धिकरं प्रतिक्रमण नामावश्यक मुक्तये ।।
अर्थ-यह प्रतिक्रमण नामका आवश्यक अनंत गुणों को धारण करनेवाले समस्त वत गुप्ति योग और समितियों को शुद्ध करनेवाला है, सर्वोत्कृष्ट है, मोक्ष देने वाला है, दोषों को दूर करनेवाला है, अत्यंत निर्मल है, पापों को नाश करनेवाला है, कलंक को दूर करनेवाला है और अंतःकरण को शुद्ध करनेवाला है । इसीलिये मुनियों को ऐसा यह प्रतिक्रमण नामका आवश्यक प्रयत्न पूर्वक प्रतिदिन करते रहना चाहिये । ॥६५॥
शुभ प्रत्याख्यान का स्वरूप कहने की प्रतिज्ञाप्रतिक्रमणमियुक्तिमिमामुषत्वा समासतः । सरप्रत्याख्यान नियुक्ति प्रवक्ष्यामि ततःशुभाम् ।।६।।
___ अर्थ---इसप्रकार हमने संक्षेप से प्रतिक्रमण का स्वरूप कहा अव आगे शन प्रत्याख्यान का स्वरूप कहते हैं ॥६६॥
प्रत्याख्यान का स्वरूपअयोग्यानां स्वयोग्यानां वस्तूनां तपतेथवा निराकरणं यत्नास्कियते नियमेन च ॥१७॥