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मूलाचार प्रदीप]
( १८५)
[चतुर्थ अधिकार अर्थ-मुनियों को अपने कंठगत प्राण होनेपर भी तीव परिषह आदि के द्वारा जगत भर में निवा उत्पन्न करनेवाली प्रत्याख्यान की हानि कभी नहीं करनी चाहिये । ॥१:४५॥
शिथिलाचार कभी नहीं करना चाहियेप्रत्याख्यानस्य भंगेन भंगयान्तियतोखिलाः । गुणा मूलोत्तराधाश्च सद्भगाच्छूझकारणम् ।।४६।। महापापं प्रजायेत तेनवुःखं वचोतिरम् । भ्रमणशिथिलामांच श्वभ्रादिबुर्गसोचिरम् ।।४७।।
अर्थ-इसका भी कारण यह है कि प्रत्याख्यानके भंग होने से मूलगुण, उत्तरगुण आदि सबका भंग हो जाता है लथा मूलगुण, उत्तरगुरण के भंग होने से नरक का कारण ऐसा महापाप उत्पन्न होता है और उस महापाप से बचनातीत दुःख होता है । तथा इसप्रकार शिथिलाचारको धारण करनेवाले मुनि नरकादिक दुर्गतियों में चिरकाल तक परिभ्रमण करते रहते हैं ।।४६-४७।।
___ उपद्रव मानेपर भी इसे नहीं छोड़ेंमत्वेति विश्वयत्नेनपालयन्तु तपोषनाः । प्रत्याख्यानं जगस्सारसम्पद्रयकोटिषु ॥४॥
अर्थ-यही समझकर मुनियों को करोड़ों उपद्रव आनेपर भी जगत में सारभूत यह प्रत्याख्यान पूर्ण प्रयत्न के साथ पालन करना चाहिये ॥४॥
प्रत्याख्यान का फलसर्वानहरमनोमयिनं कर्मारिविध्वंसकं स्वर्मोक्षकनिबंधनंशुभनिधि तीश्वरः सेवितम् । मन्तातीतगुणाम्बुधि सुमुनयः संपालपेताखिलं प्रत्याल्यामवरं सदासुविपिनासर्वार्थसंसिद्धये ॥४६॥
अर्थ-यह प्रत्याख्यान समस्त अनर्थों को हरण करनेवाला है, मन और इंद्रियों को जीतनेवाला है, कर्मरूप शत्रुओं को जीतनेवाला है, स्वर्ग और मोक्षका एक अद्वितीय कारण है, शुभकी निधि है, तीर्थकर परमदेव भी इसकी सेवा करते हैं और अनंत गुणों का समुद्र है । इसलिये श्रेष्ठ मुनियोंको संपूर्ण पुरुषार्थ सिद्धि करने के लिये विधि पूर्वक सवा पूर्ण प्रत्याख्यान पालन करना चाहिये ।।४६॥
कायोत्सर्ग के वर्णन करने की प्रतिज्ञाप्रत्याख्यानस्य नियुक्ति निरूप्येमासमासतः । कायोत्सर्गस्य नियुक्तिमितऊयदिशाम्यहम् ॥५०॥
अर्थ-इसप्रकार संक्षेप से प्रत्याख्यान का स्वरूप कहा अब आगे कायोत्सर्ग का स्वरूप कहते हैं ॥५०॥