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मूलाचार प्रदीप ]
( ११० )
[ चतुषं श्रधिकार
प्राप्त करने के
त्म्य प्रगट करने के लिये, वा प्रतिदिन अपनी इच्छानुसार इष्ट पदार्थ लिये वा परलोक में स्वर्ग की राज्य की प्राप्ति का सेना की प्राप्ति के लिये वा इनमें से किसी एक की प्राप्ति के लिये अपने हृदय में अशुभ संकल्प करते हैं उसको अशुभध्यान कहते हैं ।।७५- ७७।।
अशुभध्यान का त्याग एवं शुभध्यान आवश्यक -
अप्रशस्तं प्रशस्तं च ध्यातं ज्ञात्वाबुधा इदम् | त्यमस्वाशुभं शुभध्यानं कायोत्सर्गे भजन्तु भोः ॥ ७८ ॥ अर्थ — इसप्रकार प्रशस्त और अप्रशस्त ध्यान को समझ कर बुद्धिमानों को कायोत्सर्ग में अशुभध्यान का त्याग कर देना चाहिये और शुभ ध्यान धारण करता चाहिये ॥७८॥
कायोत्सर्ग करनेवाले मुनि का स्वरूप
मोक्षार्थी जितनिद्रोयस्तत्त्वशास्त्रविशारदः । मनोवाक्कायसंधुद्धो बलवीर्याद्यलं कृतः ॥७६॥ महातपासाकाश्रो महाधैयों जितेन्द्रियः परीषहो यसर्गादि जयशीलो चलाकृतिः ॥ ८० ॥ महाव्रती परात्मज्ञः इत्याद्यन्यगुणाकरः । कायोत्सर्गो भवेन्नमुत्तमो मुक्तिसाधकः ||१||
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अर्थ – जो मुनि मोक्षकी इच्छा करनेवाला है, निद्राको जोतने वाला है, तत्त्व और शास्त्रोंके जानने में अत्यंत चतुर है, जिसके मन-वचन-काय शुद्ध हैं, जो बल और वीर्य ( शक्ति से) सुशोभित हैं, जो महा तपस्वी है, हृष्ट पुष्ट, पूर्ण शरीर को धारण करनेवाला है, महा धीर वीर है, जितेन्द्रिय है, परिषह और उपसर्गों को जीतने वाला है, जिसकी आकृति निश्चल रहती है, जो महाव्रती है, परमात्मा को जानने वाला है और मोक्षको सिद्ध करनेवाला है तथा और भी ऐसे ही ऐसे गुणों की खानि है, ऐसा मुति उत्तम कायोत्सर्गी (कायोत्सर्ग करनेवाला ) कहा जाता है ।।७६-८१।।
कायोत्सर्ग करने का कारण -
प्रतानां समितीनां च गुप्तोमा संयमात्मनाम् । क्षमा दिलक्षणानां च मूलान्यगुणद्रक विदाम् || कषायें नैfhatraमोम्माद भयादिभिः । यातायातेः प्रमावैश्च मनोवाग्वपुश्चलः ॥६३॥ जाता येऽतिकमास्तेषां वक्षः शुद्धघर्थमत्र यः । विधोयते तमूत्सर्गः तद्ज्ञेयं तस्य कारणम् ॥ ६४ ॥ अर्थ- व्रत, समिति, गुप्ति, संयम, क्षमा, मार्दव श्रादि धर्म, मूलगुण, उत्तरगुण, सम्यग्दर्शन और आत्माको शुद्धता आदि में कषाय, नोकषाय, मद, उन्माद, भय, गमनागमन प्रभाव, मन इंद्रियां वचन और शरीर की चंचलता से जो अतिचार लगते
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