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मूलाचार प्रदीप ]
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[ चतुर्थ अधिकार पृथक्पृथग्विधातव्यः कायोत्सगों व्रतामिभिः । अष्टोत्तरशतोच्छ्वासः प्रमाणोविधनास्यचित् ।।
अर्थ-हिसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहके निमित्तसे जो पांचों महाव्रतोंमें अतिचार लगे हों तो उनको शुद्ध करने के लिये वतियों को अलग-अलग व्रतके अलगअलग असिचार एकसौ आठ उच्छवासके द्वारा विधिपूर्वक कायोत्सर्ग धारण कर अलग हो शुद्ध करना चाहिये । भावार्थ-एकसौ आठ उच्छ्वासों के द्वारा अहिंसा व्रतके दोष शुद्ध करने चाहिये फिर एकसौ आठ उच्छ्वासों द्वारा सत्यवतके दोष दूर करने चाहिये इसप्रकार सबके लिये अलग-अलग कायोत्सर्ग करना चाहिये ।।५-६॥
___ स्वाध्याय और वन्दना में कायोत्सर्ग विधिग्रंथारम्भे समाप्ते च स्वाध्याये बंदनाविषु । कायोत्सर्गेण कर्तव्या उच्छ्वासाः सप्तविशंतिः ।।७।।
अर्थ-ग्रंथके प्रारंभ में वा ग्रंथ की समाप्ति में, स्वाध्याय में, वंदना करने में वा और भी ऐसे कार्यों में सत्ताईस श्वासोच्छ्वास से कायोत्सर्ग करना चाहिये ॥७॥
कायोत्सर्ग में ध्याने योग्य पद और उसका फलकामोत्सर्गेषु सबंधु होत्युच्छ्वासान् विधाय च । परमेष्ठिपयाना जपनेनाविशुद्धये ।।८।।
अर्थ--ऊपर कहे हुए समस्त कायोत्सर्गों में ऊपर कहे हुए उच्छवासोंके द्वारा पंच परमेष्ठियों को कहने वाले पदों को जपना चाहिये । ऐसे ही जपसे पापों की शुद्धि होती है ॥८॥
प्रशस्त ध्यान करने को प्ररणा--- प्रशस्त धर्मशुक्लाख्यं द्विषाध्यानशिवप्रदम् । स्वशक्त्या क्वचित्तेचिरंध्यायन्तु धोषनाः ।।६।।
अर्थ-धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दो ध्यान ही प्रशस्त हैं और ये ही दो ध्यान मोक्ष देनेवाले हैं इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को अपनी शक्ति के अनुसार एकचित्त होकर चिरफाल तक ये दोनों ध्यान धारण करने चाहिये ॥६॥
निर्दोष कायोत्सर्ग का फलयतोव्युत्सर्ग एकोस धर्मशुक्लशुभान्वितः । द्वात्रिदोषनिष्क्रान्तः कृतः पाशुसुयोगिनाम् ॥१०॥ महती सकला ऋद्धी व्योमगत्यादिकारिणी । मानं च केवलं विश्वप्रवीपं जनयस्यहो ॥११॥
अर्थ-क्योंकि यह कायोत्सर्ग यदि बत्तीस गोषों से रहित तथा शुभ धर्मव्यान और शुक्लध्यान पूर्वक किया जाय तो इस एक ही से मुनियों को प्राकाश गामिनी