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मूलाचार प्रदीप
( १८६)
[ चतुर्थ अधिकार __ अर्थ--जो मुनि बटकर कायोत्सर्ग करता है और उसमें हृदय से प्रार्तध्यान वा पौरम्यान का विस्तार करता है उसके आसानासीन नाम का कायोत्सर्ग होता है । ॥६६॥
उत्थानासीन दोष का त्यागउरियतासीनएकोन्य प्रासीनासीमसंज्ञकः । द्वाविमो सर्वथा त्याज्यों शेषो कार्यों प्रयत्नतः 11७०।।
अर्थ-इनमें से एक उत्थितासीन और दूसरा प्रासोनासीन इन दोनों फायोसोका सदाके लिये त्याग कर वेना और बाकी के दोनों कायोत्सर्ग प्रयत्नपूर्वक धारण करने चाहिये ।।७।।
उत्तम ध्यान का स्वरूपसम्यादृशानचारित्रभुतान्यासयमाविषु । महाव्रतेषु सर्वेषु संपमाचरणेषु च ॥७१।। दशलक्षणधर्मषु तपःसमितिगुप्तिषु । प्रत्याख्याने कवायाक्षाशुभध्यानारिरोषने ॥७२॥
प्रास्मसत्त्वेऽन्यतत्त्वेषु ध्यामेषु परमेष्टिनाम् । कर्मानवनिरोधे च संवरे निर्जरा शिवे ॥७३॥ हृदि शुद्धसुसंकल्पः क्रियते यो गुणाप्तपे । महान् व्युत्सर्गमापन्नेस्तत्थ्यानमुत्तममतम् ॥४॥
अर्थ-कायोत्सर्ग धारण करनेवाले मुनि गुण प्राप्त करने की इच्छा से जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र, शास्त्रोंका अभ्यास, यम, नियम, समस्त महाबल समस्त संयमाचरण, वश लक्षण धर्म, तप, समिति, गुप्ति, प्रत्याख्यान, कषायों का निरोध, इन्द्रियों का निरोध, प्रशभ ध्यानका निरोध, प्रात्म तत्त्व, अन्य तत्त्व, परमेष्ठियों का ध्यान, कर्मोके आरव का निरोध, संवर, निर्जरा और मोक्ष प्राप्त करने के लिये जो हृदय में शुद्ध संकल्प करते हैं महा संकल्प करते हैं उसको उत्तम ध्यान कहते हैं ।।७१-७४।।
अशुभध्यान कास्वरूप-- परिवारमहासम्यापूजासस्कारहेतवे । अन्नपानादिमिष्टापत्पख्यातिकोतिप्रसिद्धये ॥७५|| स्वमाहात्म्यप्रकाशाप स्वेष्टवस्थाप्तयेऽन्वहम् । स्वराज्यपदादीनांप्राप्तयेऽमुत्र वा हृदि ।।७६।। इत्याद्यन्यतमापत्य यः संकल्पः क्रियतेशुभः । कायोत्सर्गसमापनस्तध्यानमशुभंस्मतम् ॥७॥
अर्थ-इसी प्रकार कायोत्सर्ग करनेवाले जो मुनि अपने परिवार को महा संपत्ति प्राप्त करने के लिये, वा पूजा सत्कार कराने के लिये, वा मीठे-मीठे अन्न-पान । प्राप्त करने के लिये वा अपनी कोति फैलाने वा प्रसिद्ध होने के लिये, या अपना माहा