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मूलाचार प्रदीग]
[चतुर्थ अधिकार ___ कायोत्सर्ग का लक्षरणश्यक्त्वांगाविममस्त्रं यद्विधासंगविधीयते लवमानभुजास्थानं गुचितनपूर्यकम् ॥११५१॥ परमेष्ठिपवादीनामहोरात्रादिगोचरः। कायोत्सर्गः स मन्तव्योनंतवीर्यावि कारकः ।।११५२।।
अर्थ-रात्रि में वा अन्य किसी समय में अपने शरीर से ममत्व का त्यागकर तथा दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर खड़े होकर दोनों भजाएँ लंबी लटका कर पांचों परमेष्ठियों के गुणों का चितवन करना कायोत्सर्ग कहलाता है । यह कायोत्सर्ग अनंत धीर्यको उत्पन्न करनेवाला है ।।११५१-११५२॥
कायोत्सर्ग के भी ६ भेद हैंनामास्यस्थापना व्यक्षेत्र कालोशुभाश्रितः । भाषएबोस्यनिक्षेपः कायोत्सर्गस्यषविधः ॥५३।।
अर्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और शुभ भावके भेदसे छहीं निक्षेपों से यह कायोत्सर्ग भी छह प्रकार है ॥५३॥
नाम कार्यान्मर्ग का लक्षणसरागकरनिदाविनामोत्यदोषशुद्धये । कायोत्सर्गोत्र यो नाम कायोत्सर्गाह्वयोहि सः ॥५४॥
अर्थ-किसी सारगी, ऋर और निद्य आदि नामसे उत्पन्न हुए दोषों को शुद्ध करने के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसको नाम कायोत्सर्ग कहते हैं ॥५४॥
स्थापना कायोत्सर्ग का लक्षणकुत्सितस्थापनाद्वारागसातीधारशांतये । कायोत्सर्गः कृतोय स स्थापनासंग एवहि ॥५५।।
अर्थ--किसी कुत्सित स्थापना के आये हए नतीचारों को शांत करने के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसको स्थापना कायोत्सर्ग कहते हैं ॥५५।।
द्रव्य कायोत्सर्ग का लक्षणसावग्यसेवाश्च जसिदोषस्यहानये । क्रियते यस्तनूत्सर्गो बन्यव्युत्सर्ग एवं स: ।।६।।
अर्थ-पापरूप द्रव्यों के सेवन करने से उत्पन्न हुए दोषोंको दूर करने के लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसको द्रव्य कायोत्सर्ग कहते हैं ।।५६।।
क्षेत्र कायोत्सर्ग का लक्षणसरागरमिथ्यात्यायक्षेत्रजमलारमनाम् । विशुद्धर्थ यस्तनूत्सर्गः क्षेत्रव्युत्सर्ग एव सः ।।५७॥
अर्थ- सारगी, क्रूर और मिथ्यात्व से वृषित क्षेत्रसे उत्पन्न हुए दोषों को दूर