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मूलाचार प्रदीप]
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[ चतुर्थ अधिकार शिष्योनुभाषतेयत्रप्रत्यास्थानविधौशुभे । अनुभाषणशुद्धास्यं प्रत्यारयानं तदुच्यते ॥३६।।
अर्थ-प्रत्याख्यान के समस्त अक्षर जो गुरु ने उच्चारण किये हैं व्यंजन स्वर और मात्राऐं जिस प्रकार शुद्ध उच्चारण को हैं उसी प्रकार शिष्य को भी शुभ प्रत्याख्यान लेते समय उच्चारण करना चाहिये । इसप्रकार के प्रत्याख्यान को अनुभाषण शुद्ध नामका प्रत्याख्यान कहते हैं ॥३८-३६॥
(३) अनुपालन शुद्ध प्रत्याख्यान का लक्षणमहोपसर्ग बुाध्यक्षमक्लेशादिराशिषु । आतेषु सुखदुःखादिष्वटव्यानिवनादिषु ॥४०॥ दुर्भिक्षाविषुसर्वश्राखंध्यत्प्रतिपाल्यते । अनुपालनशुद्धास्यं तत्प्रत्याख्यानमूजितम् ॥४॥
अर्थ-किसी महा उपसर्ग के आ जानेपर किसी महा व्याधि के हो जानेपर, किसी दुःख या क्लेश के हो जानेपर अथवा किसी जंगल, वन, पर्वत आदि में किसी सुख-दुःख के उत्पन्न हो जानेपर अथवा दुभिक्षके उत्पन्न हो जानेपर सर्वत्र अपने प्रत्याख्यान का पालन करना अनुपालनशुद्ध नामका प्रत्याख्यान कहलाता है ।।४०-४१॥
(४) भावसुद्ध प्रत्याख्यान का स्वरूपरागद्वेषमदोन्मावः कषायारि व्रजेः स्वचित् । कामाकाख्यधूतश्च परिणामेन योगिनाम् ॥४२॥ न मनायूषितं शुद्ध प्रत्याश्यानं यदुत्तमम् । भावसुद्धाभिधं ज्ञेयं प्रत्याख्यानं तव हि ॥४३॥
____ अर्थ-राग, द्वेष, मद, उन्माव आदि के द्वारा वा कथायरूप शत्रुओं के द्वारा अथवा काम के उद्रेकरूपी धर्मों के द्वारा मुनियों के परिणामों में किसी प्रकार की अशुद्धता नहीं आती है । उनका उत्तम प्रत्याख्यान शुद्ध बना रहता है उसको भावशुद्ध प्रत्याख्यान कहते हैं ॥४२-४३॥
शरीर की स्थिति के लिये आहार कब ग्रहण करें? प्रत्याख्यानमिदं सर्व कृरणा कायस्थिति द्रुतम् । ग्राह्य धतुविधं मुफ्त्य गुरोऽन्तेमुदायुधः ॥४४॥
अर्थ-बुद्धिमान मुनियों को यह सब प्रत्याख्यान करके उसका नियम पूर्ण होनेपर शरीर स्थिति के लिये आहार ग्रहण करना चाहिये और फिर गुरु के समीप जाकर मोक्ष प्राप्त करने के लिये फिर चारों प्रकार का प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिये ॥४४॥
प्रन्याख्यान को हानि कभी नहीं करनी चाहिये-- पर्वाचवानिन कर्तच्या प्रत्याश्यानस्यसंयतः । प्राणान्तेपि जनियर तीन परीषहादिभिः ।।४५||