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मूलाचार प्रदीप ]
( १८३ )
किस समय उष्ण जल पेय है
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रागण कालवाहार्थ यदि त्यक्त ं न शक्यते । नीरं ष्ठाष्टमा सह्य छणं ब्राह्यजः ।। अर्थ - - रागकी अधिकता के कारण वा उष्ण काल होने के कारण अथवा बाह होने के कारण यदि वेला तेला आदि में पानी का त्याग न हो सके तो लोगों को ऐसे समय में उष्ण जल ग्रहण करना चाहिये || ३२॥
भोजन के बाद जल प्रब्राह्म है
[ चतुर्थ अधिकार
पाराहून जातासु राजकलेशादिकादिषु । प्राणान्तेपि न वादेयं भोजनानम्सरेजलम् ।।३३।। अर्थ - पारणाके दिन यदि रोग क्लेश भी उत्पन्न हो जाय और प्राणों के अंत होने का समय आ जाय तो भी उस दिन भोजनके बाद जल ग्रहण नहीं करना चाहिये ||३३|| निम्नलिखित ४ शुद्धि सब जगह रखनी चाहिये -
श्रथ विनयशुद्धात्यमनुभावासमापम् । प्रतिपालनशुद्धात्यं भावशुद्धधाभिधानम् ||३४|| शुद्ध चतुविषहोदं प्रत्याख्यानं भषापहम् । मुक्तये मुक्तिमद्वाक्यैः पृथक् पृथक् व येस्ताम् ||३५|| अर्थ- - इस प्रत्याख्यान में चार प्रकार की शुद्धि रखना चाहिये पहली विनयशुद्ध, अनुभाषाशुद्ध, प्रतिपालनशुद्ध और भावशुद्ध इसप्रकार चार प्रकार की शुद्धतापूर्वक जो प्रत्याख्यान है वही संसार को नाश करनेवाला है । अब हम सज्जनोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिये युक्ति पूर्वक वचनों के द्वारा अलग-अलग इनका स्वरूप कहते हैं ।
।।३४-३५।।
(१) विनयशुद्ध प्रत्याख्यान का स्वरूपfesोगाभिभक्ति कृत्वानश्वागुरुतमौ । पंचधा विनयेनामा प्रत्याख्यानं चतुविषम् ॥ ३६ ॥ गृह्यतेयसदन्तेनायंभक्तिः प्रदीयते । शिविशुद्ध तत्प्रस्यास्यानं शिवप्रवम् ।। ३७।।
अर्थ - प्रत्याख्यान लेते समय सिद्धभक्ति, योगभक्ति पढ़नी चाहिये फिर गुरुके दोनों चरण कमलों को नमस्कार कर पांच प्रकार की विनय के साथ चारों प्रकार का प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिये तथा अंत में आचार्यभक्ति पढ़नी चाहिये । इसप्रकार शिष्यों के द्वारा मोक्ष देनेवाला प्रत्याख्यान ग्रहण किया जाता है उसको विनयशुद्ध प्रत्याख्यान कहते हैं ।।३६-३७।।
(२) अनुभावरण शुद्ध प्रत्याख्यान का स्वरूपा
प्रत्याख्यानामराः सर्वे गुरुणोच्चरितायथा | व्यंजनस्वरमात्राविशुद्धया ये तांस्तथैव च ॥ ३८ ॥