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मूलाचार प्रदीप ]
( १७५)
[चतुर्थ अधिकार पद प्राप्त करते हैं ॥७७-७८।।
____ निदा, गर्दा पूर्वक शुद्ध प्रतिक्रमण आवश्यक हैमस्वेति धीमता नियॉनवामहाँदिपूर्वके साप्रतिक्रमणालोचने कार्य व्रतशुसये ।।७।।
अर्थ-यही समझकर बुद्धिमान पुरुषों को अपने व्रत शुद्ध रखने लिये निदा गहाँ पूर्वक श्रेष्ठ प्रतिक्रमण और आलोचना प्रतिदिन करनी चाहिये ।।७।।
श्रेष्ठ प्रतिक्रमण का फलसत्प्रतिकमणो धर्मो महान् रत्नत्रयात्मकः । शिष्याणा मुक्ति कर्तासोन्नामेय वीरनाथयो ।
___ अर्थ-यह श्रेष्ठ प्रतिक्रमण रूप धर्म रत्नवयात्मक है और महान है तथा भगवान वृषभदेव और भगवान वीरनाथके शिष्यों को मोक्षका देनेवाला है ।।८०॥
भगवान् अजितनाथ से लेकर भगवान पार्श्वनाथ तक के मुनियों का प्रतिक्रमणतयोर्मध्यजिनेशानांशिष्याणां च प्रमावतः । पचिस्मिनते बोषो जायते तस्य शुद्धये ॥१॥ तावन्मानं भवेत्स्तोकं सरप्रतिक्रमणं शुभम् । न च सर्व यसस्तोस्युनिप्रमारा महाभियः ॥१२॥
अर्थ- भगवान अजितनाथ से लेकर भगवान पार्श्वनाथ तक बाईस तीर्थंकरों के शिष्यों को किसी भी प्रमावसे जिस वतमें दोष लगा है उसी की शुद्धिके लिये उतना ही थोड़ा सा शुभ प्रतिक्रमण बतलाता है उनके लिये सम प्रतिक्रमण नहीं बतलाया। क्योंकि मध्यके वाईस तीर्थंकरों के शिष्य बड़े बुद्धिमान् ये और स्वभाव से ही प्रमाद रहित थे ।।८१-८२॥
प्रथम तथा मंतिम तीर्थकर के काल में होने वाले मुनियों का प्रतिक्रमणआदि तीर्थकुतः शिष्याः स्वभावाचजबुद्धमः सल्मास्तेषामतीचाराः भवेयुर्वहयो व्रते ॥३॥ श्रीषद्ध मानतीर्थेशशिष्यास्तुच्छधियस्ततः । कालबोषेण तेषां स्यादतीचार बजो वते ॥४॥
अर्थ-प्रथम तीर्थकर भगवान बृषभदेव के शिष्य स्वभाव से हो सरल बुद्धि वाले थे इसलिये उनके वतोंमें भी बहुत से अतिचार लगते थे। तथा अंतिम तीर्थकर भंगवान वर्द्धमान स्वामीके शिष्य तुच्छ बुद्धि वाले होते हैं । अतएव कालदोष के कारण उनके पतोंमें भी बहुत से अतिचार लगते हैं । ८३.८४॥
तीनों समय समस्त प्रतिक्रमण के दंडकों का उच्चारणतस्मादतिफमस्ते दुःस्वप्नेऽप्यगोचरादिकः । जात। स्वल्पोमहान्चात्र तस्यशुरुषं स्वशंकिताः ॥ उच्चारयति सर्वास्तान् प्रतिक्रमणवंउकान् । त्रिकाल नियमेव व्रतशुद्धिविधायिनः ।।६।।