________________
मूलाचार प्रदीप ]
( १७८ )
[ चतुर्थ अधिकार नामावि षड्विधानां वा कमसंवरहेतवे । प्रागतानामनागतनां तत्प्रत्याख्यान मतंजिनः ।।८।।
अर्थ-जो पदार्थ अपने योग्य हैं अथवा अयोग्य हैं उन पदार्थोका नियम पूर्वक तपश्चरण के लिये त्याग कर देना प्रत्याख्यान हैं। अथवा कोका संवर करने के लिये नामादिक छहों निक्षेपों के द्वारा प्रागत अथवा अनागत पदार्थोंका त्याम करना भगवान जिमेन्द्रदेव ने प्रत्याख्यान बतलाया है ।।१७-१८॥
प्रत्याख्यान के भी ६ भेद हैंनामानुस्थापना तथ्य क्षेत्र कालोऽशुभाश्रितः । भावश्चेत्यत्र निक्षेपः प्रत्याख्यानेऽपि षड्विधः ।।
अर्थ-इस प्रत्याख्यान में भी नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये छह निक्षेप माने गये हैं, अर्थात् यहाँ निक्षेपोंसे यह प्रत्याख्यान भी छह प्रकार है ॥६६॥
नाम प्रत्याख्यान का स्वरूप
पापरागादिहेतूनि ऋगशुभान्यनेकशः । नामानि बुनियानि स्वान्येषां दोषवानि च ।।११००।। जातुविद्यभनोच्यन्ते हास्या : स्वपरादिभिः । नियमेव तन्नामप्रत्याख्यानं स्मृतं बुधः ।।११०१॥
अर्थ-इस संसार में अनेक नाम ऐसे हैं जो पाप और रागके कारण हैं, क्रूर हैं, अशुभ हैं, विद्वानों के द्वारा निदनीय हैं, और अपने तथा दूसरों के लिये दोष उत्पन्न करनेवाले हैं ऐसे नामों को हंसी आदि के कारण वा अपने पराये की किसी प्रेरणा से भी नियम पूर्वक उच्चारण नहीं करना विद्वानों के द्वारा नाम प्रत्याख्यान कहलाता है। ॥११००-११०१॥
उत्तम स्थापना प्रत्याख्यान का स्वरूपमिथ्यादेवाविमूर्तीना रवनीनां सकलनसाम् । मिथ्यात्वहेतुभूसानां धीमणे नियमो नमः ॥११०२॥ कृता वासरामाण गणां गृह्यते निशम् । पापभीतैश्च तत्स्थापनाप्रत्याख्यानम तम् ।।
अर्थ- पाप के डरसे मुनि लोग समस्त पापों की खानि, मिथ्यात्य बढ़ाने का कारण, क्र र और सरागी मिथ्या देवों की मूर्तियों के देखने का कृत कारित अनुमोदना से त्यागकर देते हैं उनके न देखने का नियम कर लेते हैं उसको उसम स्थापना प्रत्या. ख्यान कहते हैं ॥११०२-११०३॥
उत्तम द्रव्य प्रत्याख्यान का स्वरूप--- कर्मबंध करा द्रव्या शुभा वा सपसेखिलाः । स्थेन जातु न भोक्तव्या भोजितव्या न चापरः ।।४।।
मनसा नानुमंतण्या एवं यो नियमो वरः । मुनीश पंचते प्रव्यरत्याख्यान सजिलम् ॥१५॥