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मुलाचार प्रदीप
( १७६ )
[ चतुर्ष अधिकार अर्थ-अतएव दुःस्वप्न ईर्यागमन आदि से होनेवाले जितने भी छोटे या बड़े अतिचार हैं उनको शुद्ध करने के लिये व्रतोंको शुद्ध करनेवाले मुनि अच्छी तरह निःशंकित होकर नियम पूर्वक तीनों समय समस्त प्रतिक्रमण के दंडकों का उच्चारण करते हैं ।।५-८६॥
कौ को नष्ट करने के लिये प्रतिक्रमण भावश्यक है-- विज्ञायेति व्लादीना शुद्धयर्थ कर्महानये । कर्तव्यं यत्ततो दक्षः प्रतिक्रमसमंजसा ।।७।।
अर्थ-यह समझकर चतुर पुरुषोंको अपने वत शद्ध करने के लिये और कमों को नष्ट करने के लिये बहुत शोध प्रतिक्रमण करना चाहिये ।।७।।
प्रतिक्रमण और आलोचना दोनों ही कब करना चाहियेयतः करिषद्धृतेदोषादिनिराक्रियते बुषः। सत्प्रतिक्रमणेनैव वयचिदालोचनाविभिः ।।८।। तस्मात्तद्वितयं नित्यं विधेयं विधिपूर्वक्रम । सर्वदोषाएहं याला वृतद्धिविधायिभिः ।।६।।
अर्थ--बुद्धिमान् लोग किसी दोष को तो प्रतिक्रमण से निराकरण करते हैं और किसी दोष को आलोचना प्रावि से निराकरण करते हैं अतएव यत्नपुर्वक क्तोंको शुद्धि करनेवाले मुनियों को विधि पूर्भक समस्त दोषों को दूर करनेवाले प्रतिक्रमण और आलोचना दोनों ही सदा करने चाहिये ।।८८-८६।।
ऐसा करने से व्रतों के समूह चन्द्रमा की चांदनी के समान निर्मल हो जाते हैंयत: सर्वगुणः साई समस्ता वृतपंक्तयः । चन्द्रज्योत्स्ना दवात्यर्थनिर्मलाःस्पुरवतवयात् ।।६।।
अर्थ- इसका भी कारण यह है कि प्रतिदिन प्रतिक्रमण और आलोचना करने से समस्त वतों के समूह समस्त गुरषों के साथ साथ चन्द्रमाकी चांदनी के समान अत्यंत निर्मल हो जाते हैं ||१०||
प्रतिक्रमण और पालोचना करने का विशेष फल-- विसद्धिासमायेत तयाध्यानं शिवप्रवम् । तेनकर्मविनाशश्वतन्नाशे निवृतिः सताम् ॥११॥
अर्थ-इसके सिवाय प्रतिक्रमण और आलोचना करने से चित्तको शुद्धि होती है तथा चित्त को शद्धि होने से मोक्ष देनेवाला ध्यान प्रगट होता है उस ध्यानसे समस्त कमों का नाश होता है और समस्त फर्मों के नाश होने से सज्जनों को मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥६॥