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मुनाचार प्रदीप ]
( १७४ )
[ चतुर्थ अधिकार
fferer : saeda freा गर्दा शुचादिभिः । गुर्वादिसाक्षिकं दक्ष व्रतोऽरिरिवोत्थितः ।।७२ ।। अर्थ- जिस क्षेत्र में जिस काल में जिन द्रव्यों से और जिन भावों से व्रतों में अतिचार उत्पन्न हुआ है वह सब चतुर मुनियों को छलकपट छोड़कर निंदा गर्हा और शोक के साथ गुरु आदि की साक्षी पूर्वक बड़े प्रयत्न से दूर करना चाहिये तथा उस दोष को तों को नाश करनेवाले शत्रुके समान समझकर उनका निराकरण करना चाहिये ॥१७१-७२।१
भाव प्रतिक्रमण अंतः शुद्धिका कारण है
मनसा निवनं स्वस्य गर्हणं गुरुलाक्षिकम् । पश्चाताप शोकेन यदपतनादि च ॥७३१२ क्रियते मुक्तिमार्गस्यैः सतिव्रतायतिक्रमे । प्रतिक्रमणभावाल्यं तदन्यः शुद्धिकारणम् ||७४ ||
अर्थ - मन से अपनी निंदा करना गर्दा हैं पश्चात्ताप से उत्पन्न हुए शोक से आंसू गिरना श्रादि शोक कहलाता है । मोक्षमार्ग में रहनेवाले मुनियों को वृत्तों में दोप लगने पर गर्हा निंदा वा शोक के द्वारा प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये । यह भाव प्रतिक्रमण कहलाता है और अंतःकरण की शुद्धि का कारण है ।।७३-७४।
किसके व्रतोकी शुद्धि नहीं होती -
यः प्रतिक्रमणं सर्व द्रव्यभूतं करोति वा । श्रृणोति सूत्रमात्रेण निधानदि रगः । ७५ ।। परमार्थातिगस्तस्य शुद्धिर्न जायते मनाक् । व्रतानां न च दोषासा हानि र्न निजराशियम् । ७६ || अर्थ- जो मुनि केवल द्रव्य प्रतिक्रमण तो सब तरह का कर लेता है तथा सूत्रमात्रसे उसको सुन भी लेता है परंतु निंदा, गहों से दूर रहता है और परमार्थसे भी दूर रहता है उसके व्रतोंकी शुद्धि किंचितमात्र भी नहीं होती है, न उसके दोष दूर होते हैं, न उसकी निर्जरा होती है और न उसको मोक्ष प्राप्त होती है ।।७५-७६ ।।
कौनसे मुनि प्रतिक्रमण का फल मोक्ष प्राप्त करते हैं ?
यतः संवेगवैराग्यशुद्धभावाश्वितोमुनिः । अनन्यमानसो घोमान्स्वनिंदा गर्हरपाविभाक् ॥७७॥ प्रतिक्रमण सूत्रेण विधाय शुद्धिमुस्वरणम् व्रतानां तत्फलेनाशुलभतेसाश्य संपदम् ॥७८॥
अर्थ - इसका भी कारण यह है कि जो बुद्धिमान मुनि संवेग वैराग्य और शुद्ध भावों को धारण करते हैं जो संवेग वैराग्य के सिवाय अन्य किसी काम में अपना मन नहीं लगाते जो अपनी निंदा गर्हा करते रहते हैं और जो प्रतिक्रमण सूत्र के अनुसार अपने धूलोको उत्तम शुद्धि करते हैं वे ही मुनि उस प्रतिक्रमण के फलसे शीघ्र ही मोक्ष
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