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मूलाचार प्रदीप]
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[ धतुर्थ अधिकार दोषों को दूर करते हैं उसको उत्तम प्रतिक्रमण कहते हैं ।।५०-५१।।
___उत्तम प्रतिक्रमण के ७ भेदएक वैसिक रात्रिकर्मर्यापथसंज्ञकम् । पाक्षिकं भाम चातुर्मासिकं दोषक्षयंकरम् ।।५।। सांवत्सरिकमेवोत्तमार्थ संन्याससंभवम् । सप्तति जिमः प्रोक्त प्रतिकमणनुत्तमम् ।।५३||
अर्थ-इस प्रतिक्रमण के सात भेद हैं-एक देवसिक प्रसिक्रमण, दूसरा रात्रिक प्रतिक्रमण, तीसरा ईर्यापथ प्रतिक्रमण, चौथा पाक्षिक प्रतिक्रमण, पांचवां दोषों को क्षय करनेवाला चातुर्मासिक प्रतिक्रमण, छठा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण और सातवां उत्तम अर्थको देने वाला सन्यास के समय होनेवाला प्रतिक्रमण । इसप्रकार भगवान जिनेन्द्रदेव ने इस उत्तम प्रतिक्रमण के सात भेद बतलाये हैं ॥५२-५३॥
(१) प्रतिक्रमण जन प्रतिस्परा (1) पनि मितव्य को भेत-- प्रतिकामक प्रात्मा यः प्रतिक्रमणमेवतत् । यरप्रतिकमितव्यतत्त्रयं सर्वेवुधुना ॥५४॥
अर्थ-इस प्रतिक्रमणके करने में प्रात्मा प्रतिक्रामक होता है जो किया जाता है उसको प्रतिक्रमण कहते हैं और जिसका प्रतिक्रमण किया जाता है उसको प्रतिक्रमितव्य कहते हैं । अब आगे इन तीनों का स्वरूप कहते हैं ।।५४॥
प्रतिक्रामक का स्वरूप मुमुक्षुपत्नपारीयः पापभोतो महावती । मनोधाक्कायसंशुद्धो निवागहरेरितत्परः ॥५५॥ द्रव्य माविषः क्षेत्रः कालेभविन सात्मनाम् । प्रसीपारागतस्याशु सनिराकरणोखतः ।।५६॥ निर्मायो निरहंकारों व्रतशुद्धिसमोहक: स प्रतिकामको ज्ञेयः उत्तमोमुनिपुंगवः ॥५॥
अर्थ-जो उत्तम मुनि मोक्ष की इच्छा करनेवाला है, यलाचार से अपनी प्रवृत्ति करता है, जो पापों से भयभीत है, महावती है, जिसका मन-वचन-काय अत्यंत शुद्ध है, जो निदा गहाँ प्रादि करने में तत्पर है, जो अनेक प्रकार के व्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि के द्वारा लगे हुए व्रतों के दोषों को निराकरण करने में सदा तत्पर रहता है, जो छल कपट से रहित है, अहंकार से रहित है और जो व्रतों को शुद्ध रखने की सवा इच्छा करता रहता है ऐसा मुनि प्रतिक्रमण करनेवाला प्रतिक्रामक कहलाता है। ॥५५-५७॥
शुभ प्रतिक्रमण का स्वरूपसर्वथा कृतदोषारणा यतिराकरणं विधा । पश्चात्तपाक्षरोच्चारस्त प्रतिक्रमणं मुभम् ।।५।।