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[ चनुर्थ अधिकार
मुलाचार प्रदोष ]
( १७० )
के द्वारा शुद्ध करना नाम प्रतिक्रमण कहलाता है ||४४ ॥
स्थापना प्रतिक्रमण का लक्षण -
मनोज्ञेतरमूर्ते
जातदोषाद्विवर्जनम् । योगैर्यस्थापनाख्यंतत्प्रतिक्रमण मूजितम् ॥ ४५ ॥
अर्थ - मनोज्ञ वा अमनोज्ञ मूर्तिसे उत्पन्न हुए दोषोंको मन-वचन-कायसे त्याग करना स्थापना नामका श्रेष्ठ प्रतिक्रमरण हैं ।। ४५ ।।
द्रव्य प्रतिक्रमण का स्वरूप ---
सावद्यद्रयरेषाया उत्पन्न दोषवारणम् । त्रिशुद्ध द्यावसतां द्रव्यप्रतिक्रमणमेतत् ॥४६॥ अर्थ- - पापरूप द्रव्योंके सेवन करने से उत्पन्न हुए दोषोंको मन-वचन-कायकी शुद्धता पूर्वक निवारण करना द्रव्य प्रतिक्रमण कहलाता है ||४६ || क्षेत्र प्रतिक्रमण का स्वरूप
सरागक्षेत्रवासोत्मातीचारपरिहायनम् । निवाधैर्यत्सदाक्षेत्रप्रतिक्रम रपमेवतत् ॥४७॥
अर्थ- सरागरूप क्षेत्रोंके निवास से उत्पन्न हुए प्रतीचारों को निवादिके द्वारा दूर करना उसको क्षेत्र प्रतिक्रमण कहते हैं ||४७॥
काल प्रतिक्रमण का स्वरूप
'रज्जनोंदिन वर्षादिकालजयतदोषतः । निवृत्तिर्या हृदाकालातिक्रमणमेवतत् ४
अर्थ – रात दिन वर्षा आदि काल जन्य व्रतोंके दोषों को हृदय से निवारण करना काल प्रतिक्रमण कहलाता है ।। ४६ ।
भाव प्रतिक्रमण का स्वरूप
रागदोषाश्रिताद्भावाज्जातस्यातिक्रमस्य या । विरतिः क्रियते भावप्रतिक्रमणमेवतत् ॥ ४६ ॥ अर्थ - रागद्वेषादि के आश्रित रहनेवाले भावोंसे उत्पन्न हुए दोषों को दूर करना भाव प्रतिक्रमण कहलाता है ॥४६॥
उत्तम प्रतिक्रमण का विधान
एतः विधनिक्षेपैः सर्वस्वव्रतात्मनाम् । कृतानां कृत्स्नदोषाणां निराकरणमूजितम् ||५० ॥ हुवा च वपुषा बचा निदनैर्हिणादिभिः क्रियते मुनिभियंत्तत्प्रतिक्रमणमद्भ तम् ॥ ५१ ॥ ।
अर्थ - व्रत करनेवाले समस्त व्रतियों के इन छहों निक्षेपों के द्वारा अनेक दोष उत्पन्न होते हैं मुनि लोग जो मन-वचन-कायसे होनेवाली निंदा गहके द्वारा उन समस्त
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