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मूलाधार प्रदीप
[ सृतीय अधिकार हैं ॥६५॥
इन्हीं का पुनः विवेचनवतशीलगुणहीना प्रयशः करणे भुवि । कुशलाः साधुसंगाना कुशीला उदिताः खसाः ॥६६॥
अर्थ-ये कुशील मुनि व्रत शोल और गुणों से रहित होते हैं, साधु और संघ का अपयश करने में जो संसार भरमें कुशल होते हैं तथा जो दुष्ट होते हैं ऐसे मुनियों को कुशील कहते हैं ।।६६०॥
संसक्त मुनियों का स्वरूपप्रसक्ता सुधियोनिद्या पर्सयतगुणेषुये ये । समाहाराविगतमा च पंद्यज्योतिषकारिणः ॥१६॥ राजादिसेषनो मूर्खा मंत्रतंत्रावितत्पराः । संसक्तास्ते बुधः प्रोक्ता प्रतवेषाचलंपटा: ॥६६२।।
अर्थ-जो मुनि चारित्र पालन करने में असमर्थ हैं, विपरीत बुद्धिको धारण करनेवाले हैं, असंयमियों में भी निंद्य हैं, जो आहाराविक की लालसा से ही, वैद्यक वा ज्योतिष का व्यापार करते हैं, राजाविकों की जो सेवा करते हैं, जो मूर्ख हैं, मंत्र तंत्र करने में तत्पर हैं, और जो लंपटी हैं ऐसे मेष धारण करनेवाले मुनियों को बुद्धिमान लोग संसक्त मुनि कहते हैं ॥६६१-६६२।।
अपगत संज्ञक मुनि कौन होते हैं ? विनष्टाः प्रगताः संज्ञाः सम्यग्ज्ञानादिजाः पराः । येषां ते लिंगनोप्रापपगतसंज्ञा भवन्तिभो ।।
अर्थ-जिनकी सम्यम्झामादिक संज्ञा सब नष्ट हो गई हैं चली गई है ऐसे भेषधारी मुनियों को अपगत संझक कहते हैं ।।९६३॥
मृगचारित्र मुनि कौन है ? जिनवाक्यमजानाना भ्रष्टा: चारित्रमिताः । सांसारिकसुखासक्ताः करणालसमानसाः ।। भूगस्पेव चारित्रं चाचरणं स्वेच्छया भुवि । येषां ते मृगचारित्रा भवेयुः पापकारिणः ॥६६५:।
अर्थ-जो भगवान जिनेन्द्र देव के वाक्यों को समझते ही नहीं जो भ्रष्ट हैं, घारिन से रहित हैं, संसार के विषयजन्य सुखों में लीन रहते हैं, जिनका मन चारित्रके पालन करने में आलसी रहता है जो इस संसारमें हिरणों के समान अपनी इच्छानुसार चारित्र वा आचरणों को पालन करते हैं उन पापियों को मृगचारित्र नामके मुनि कहते हैं ।।९६४-६६५॥