________________
मूलाचार प्रदीप
[ तृतीय अधिकार शिरोनति के पूर्व कर्म आवश्यक-- एककरिमन् सनत्सर्गे मूनहि वनती पृथक् । पापा द्वादश स्थुश्चानुःशिरोनतयो या IEE२||
अर्थ--प्रत्येक कायोत्सर्ग में प्रादि अंत में दो नमस्कार, बारह आवतं और चारों दिशाओं में चार प्रणाम वा शिरोनति करनी चाहिये ।।६६२॥
१२ आवर्ती का क्रम तथा चारों दिशाओं में शुभ प्ररणामचतुदिक्षु च चत्वारःप्रणामा भ्रमणेशुभाः । एककस्मिन् बुध या पावर्ता द्वादशवहि ।।६३॥
अर्थ-विद्वानों को एक एक प्रदक्षिणा में चारों दिशाओं में चार शुभ प्रणाम फरने चाहिये और बारह आवर्त करना चाहिये ॥६६३।।
शुभ भावनाओं को करनेवाला कृतिकर्म करेंइत्थंचसकसंसारं कृतिकर्मशुभावहम् । मनोवाक्कायसंयुद्ध प्रसार्योभयभूषितम् ॥१४॥ द्विविषस्थानसंयुक्त मातीतं सुयोगिनः । दोषातिगं ययाजात कुर्वनुविनवादिभिः IItem
अर्थ-इसप्रकार समस्त दोषोंसे रहित, शुभ भावनाओं को धारण करनेवाला, सारभूत यह कृतिकर्म मुनियों को मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक, शब्द अर्थ और शब्दार्थ से विभूषित होकर, तथा मद रहित होकर और दोनों प्रकार के स्थानों से सुशोभित होकर विनयादिक के साथ यथार्थ रोतिसे करना चाहिये ६४-६६५॥
वंदना के ३२ दोषदोषश्चानादृतः स्तम्धः प्रविष्ठः परिपीडितः । दोलापतास्यदोषोकुशितः कच्छपरिगित: ६६६|| __ मत्स्योद्वतॊ मनोदुष्टोवेदिकायधएषहि । भयाभिधो विभ्यदेष ऋद्विगौरवगौरयो MEIN स्तेनिसः प्रतिनीताख्यः प्रदुष्टस्तजिताभिषः । शग्दोहोलिनदोषस्त्रिचलितः कुचिताहायः ।। दष्टोदृष्टाभिधः संघकरमोचनसंज्ञकः । मालम्बास्योप्पमालब्धो हीन उत्तरचलिक: INREEN मूकाल्यो बर्दुरोदोष तपा च सुलुतात्यक: वंचमाया इमे बोषास्तयाण्याद्वात्रिंशदेवहि ॥१०००॥
अर्थ-इस वंदना के बत्तीस दोष हैं और वे ये हैं-अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीडित, बोलायित, अंकुशित, कच्छपारंगत, मत्स्योर्त, मनोदुष्ट, वेविकावद्ध, भय, विदोष, ऋद्धिगौरव, गौरब, स्तेनित, प्रतिनोत, दुष्टदोष, तजित, शब्द, होलित, विधलित, कुचित, वृष्ट, अवृष्ट, संघकर, मोचन, लब्ध, अनालन्ध, होन, उत्तर, चूलिक, मूक, दर्दुर और चुलुलित । बंदना के ये मत्तीस दोष हैं, वंदना करते समय इन सबका त्याग कर देना चाहिये ॥६६६-१०००।