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मुलाचार प्रदीप ]
( १६२ )
अनाहत नामका दोष
श्रादरेण विना यच्च शैथिल्येनप्रमादिभिः क्रियक्षेत्र क्रियाकर्म दोषः सोमावृतालयः ।। १००१ ।। अर्थ - आदर के बिना शिथिलता पूर्वक प्रमोद के साथ क्रियाकर्म करना श्रनावृत नामका दोष है ।। १००१ ||
[ तृतीय अधिका
स्तब्ध दोष
विद्यादिपर्वेश] प्रोद्धता शक्यः । विधोयते क्रियाकर्म यस्तब्धदोष एव सः ॥१००२ ॥
अर्थ- श्रुतज्ञान वा विद्या आदि के श्रहंकारसे उद्धल हुए मुनियों के द्वारा जो क्रियाकर्म किया जाता है उसको स्तब्ध दोष कहते हैं ।। १००२||
प्रविष्ट दोष
त्यसोत्ययः पंचानां परमेष्ठिनाम् । क्रियाकर्म विषलेसः प्रविष्टदोषमाप्नुयात् ॥१००३ ।। अर्थ- जो पांचों परमेष्ठियों के अत्यन्त निकट होकर क्रियाकर्म वा वंदना करता है उसके प्रविष्ट नामका दोष प्राप्त होता है ॥३॥
परिपीड़ित दोष-
करजानुप्रवेश संस्पृश्य परिपीडघवा । करोति वंदना तस्य दोषास्या परिपीडितः || ४ ||
अर्थ - जो अपने हाथसे जंघा को स्पर्श करता हुआ या अंधाको दबाता हुआ वंदना करता है उसको परिपीड़ित नामका दोष लगता है ||४||
वोलायित दोष
यः कृत्वा अलमात्मानं वोलामिवात्समंदमाम् । संशयित्याथवा कुर्यात्सदोलायितदोषभाक् ।।५।। अर्थ --- जो मुनि लाके समान श्रात्माको चलायमान करता हुआ अथवा संशय में पड़कर वंदना करता है उसको दोलायित नामका दोष लगता है ||५|| अंकुशित नामक दोष
कुरवांकुशमिवात्मीये ललाटॅगुष्टमेवयः । भजते वदनां तस्य दोषोंकुशित नामकः || ६ ||
अर्थ- जो मुनि अंकुश के समान अपने ललाट पर अंगूठे को रखकर वंदना करता है उसको अंकुशित नामका दोष प्रगट होता है ॥ ६ ॥
परिगत नामक दोष
विधायकस्यैव कटिभागेन वेष्ठितम् । कुरुते वंदनांम सः भटककर गितम् ॥७॥