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मूलाचार प्रदीप]
( १५७ )
[ तृतीय अधिकार उक्त पांचों प्रकार के मुनि अवंद्य हैस्वच्छवचारिणो जममार्गदूषणदायिनः । पक्रवाचार्योपदेशांश्वकाकिमो तिजिताः ।।१६।। वर्शनशान चारित्र तपेभ्यो विमपाच तात् । दूरीमूताश्च पावस्था एते पंचव दुर्भगरः ||६६७॥ छिप्राविप्रेक्षिरणोपा गुरिणयोगिसता सदा । अयंद्याः सर्वथामिद्या अयोग्या कृतिकर्मणाम् ।।६६८।।
अर्थ-ये ऊपर लिखे पांचों प्रकार के मुनि स्वच्छन्दचारी होते हैं, जैन धर्ममें दोष लगाने वाले होते हैं, प्राचार्योके उपदेश को छोड़कर एकाकी रहते हैं, धैर्गसे सदा रहित होते हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्तप विनय और श्रुतनानसे सर्वथा दूर रहते हैं, भाग्यहीन होसे हैं तथा गुणी मुनि और सज्जनों के दोष देखने में ही निपुण होते हैं छिद्रान्वेषी होते हैं । इसीलिये ये अशंदनीय होते हैं सर्वथा निच होते हैं और कृतिकर्म के अयोग्य होते हैं ॥६६६-६६८॥
___ किसी भी लोभसे सक्त मुनियों की वंदना न करनी चाहिएएषां पूर्योदितानां च जातु कार्या न वंदमा । विनयाद्या न शास्त्रादिलाभाभीत्यादिभिर्बुधः ॥
___अर्थ-बुद्धिमान पुरुषों को किसी शास्त्र प्रादि के लोभसे या किसी भयसे भी ऊपर कहे हए पार्श्वस्थ आदि मुनियोंकी अंदना कभी नहीं करनी चाहिये और न इनकी विनय करनी चाहिये ।।६६६॥
उक्त मुनियों को बंदना करने से रत्नत्रय को हानिअमीषांभ्रष्टचताना ये कुर्वन्ति स्वकारणात् । विनमावि तुतिस्तेषांव शेधिनिश्चयः कथम् ॥
अर्थ-जो पुरुष अपने किसी भी प्रयोजन से भ्रष्ट चारित को धारण करने चाले इन पास्थिोंकी विनय करता है वा इनको बना करता है उनके रत्नत्रय और श्रद्धा का निश्चय कभी नहीं हो सकता अर्थात् कभी रत्नत्रय नहीं हो सकता ॥१७॥
सज्जनों की हानियतः पलायते नूनं सम्यक्त्वं सवगुणः समम् । ढोकन्ते दोषामिध्यात्वा नोवसंगनुते सताम् ॥
___ अर्थ-इसका भी कारण यह है कि नीच लोगों के संसर्ग से वा उनको नमस्कार करने से सज्जनों का समस्त श्रेष्ट गुणों के साथ सम्यग्दर्शन दूर भाग जाता है और मिथ्यात्व प्रादि दोष सब उन सज्जनों में प्रा मिलते हैं । ७१॥
यतों को जड़ मूलसे गिराने वाला हैमत्वेति जातु कार्यो न तेषां संगोयकोतिहत् । वतमूलहरो निद्यः सद्भिः शास्त्रादि लोभतः ।।