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मूलाचार प्रदीप ]
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[ तृतीय अधिकार श्राचार्य, उपाध्याय और साधुओं का नाम उच्चारण करते हैं ध्यान और भक्तिके द्वारा तथा उनके गुण वर्णन करके प्रतिदिन उनकी पूजा करते हैं उनको नमस्कार करते हैं aret स्तुति करते हैं और कृतिकर्म करते हैं उसको वंदना नाम का आवश्यक गुण कहते हैं ।। ६३३-८३४॥
इसके छह भेदों का उल्लेख
नामाथस्थापना द्रथ्यं क्षेत्रं कालः शुभाम्वितः । भावः षडतिनिक्षेपा बंदनायाजिनंता ||८३५॥ अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव ने उस वंदना के भी नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्रकाल और भावरूप निक्षेपों के द्वारा छह भेद बतलाये हैं || ८३५ ॥
नाम वन्दमा का स्वरूप
एसिद्ध गरी नाम् साधूनां च मुदानामोच्चरणेनमसम्भवः ॥२८३६॥ गुणाः सा स्तोत्रं क्रियते यच्छिवाप्तये । सा नामवंदनाज्ञेया नुतिपूर्वा जगद्धिता १६३७॥ अर्थ -- किसी एक तीर्थंकर का, सिद्धों का प्राचार्यों का उपाध्यायों का और साधुका प्रसन्नतापूर्वक नाम उच्चारण करना उनके नाम में होनेवाले गुरणों का वर्णन करना या मोक्ष प्राप्त करने के लिये उनकी स्तुति करना नाम वंदना कहलाती है । यह नाम वंदना नमस्कार पूर्वक ही होती है और संसार भर का हित करनेवाली है । |१८३६-८३७॥२
स्थापना वंदना नामका श्रावश्यक का स्वरूप
एका सर्वेषां भक्तिभावभशंकितः । स्तूयन्ते प्रतिभा यत्रपुण्याविफलभाषणः ||६३८ ॥ तक्याच प्ररणामावनधर्मार्थादिसाधनम् । स्थापनाथं जिनः प्रोक्तं वंदनावश्यकहि तत् ॥ अर्थ -~--- अलग अलग तीर्थकरों की अलग अलग प्रतिमाओं की अत्यन्त भक्ति और अनुराग के साथ स्तुति करना इसप्रकार सब तीर्थंकरों को प्रतिमाओं की स्तुति करना तथा भक्तिपूर्वक उनकी पूजा, उनको प्रणाम प्रादि करने से जो पुण्य प्राप्त होता है उसका निरूपण करना स्थापना वंदना नामका आवश्यक गुण है यह गुण धर्म अर्थ प्रादि समस्त पुरुषार्थी को सिद्धि करनेवाला है । ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है । ||६३६-८३६॥
द्रव्य वंदना का लक्षण --
अमीषा च्छरीराणां विव्यवर्णादिवर्णनः । स्तवनं मद्बुधैर्भक्त्या साद्रव्यवंदना शुभाः ||६४०||
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