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मूलाचार प्रदीप]
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[ तृतीय अधिकार चाहिये, फिर श्रुतिभक्ति, प्राचार्यभक्ति पढ़कर स्वाध्यायका ग्रहण करना चाहिये और उसको समाप्त करते समय मुनियों को अधिक भक्ति करने के लिये श्रुतभक्ति और शांसिभक्ति पढ़नी चाहिये ।।६३३-६३४॥
सिद्धांत ग्रन्थों के अधिकार समाप्ति पर विधानसिद्धांताधिकाराणां समाप्ती मानहेतथे । एकैकं सत्तनूरसगं Yar कुर्वन्तु संयताः ।।६३५||
अर्थ-सिद्धांत ग्रंथों के अधिकार समाप्त होनेपर उनका सन्मान करने के लिये मुनियों को प्रसन्नचित्त होकर एक-एक कायोत्सर्ग करना चाहिये ।। ६३५॥
मिद्धांतों ग्रन्थों के अधिकार समाप्ति करनेपर विधानतेषमर्थाधिकाराणां बहुमान्यत्वतश्चि । प्रादौ सिहश्रुताचार्यभक्तिः कृत्वाविवाम्बरः १६३६||
अर्थ-सिद्धांत ग्रंथों के अधिकारों के प्रारम्भमें अधिक मान देने के लिये सबसे पहले सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति बुद्धिमानों को कर लेनी चाहिये ।।६३६॥
ज्ञानको बुद्धि करनेवाले ६ कार्योत्सर्गसमाप्ताषप्यनेनक्रमणे प्रयतंते सति । भवन्ति ज्ञानकर्तारः कायोत्सर्गाः पठेव हि ।।६३७।।
अर्थ- इसीप्रकार सिद्धांत ग्रंथों के अधिकार समाप्त होनेपर ये ही भक्तियां पढ़नी चाहिये तथा ज्ञानको वृद्धि करनेवाले छह कायोत्सर्ग करने चाहिये ।।९३७।।
ऐसा शिष्य गुरुकी पदवी के योग्य होता हैज्ञानविज्ञानसम्पन्नो महाप्राशो महातपाः। घिरनजितो वाग्मी सिद्धांताधिपारगः ||६३८।। वान्सोदियोति निर्लोभोधीरः स्वान्यमतादिवित् । गंभीरस्तस्यविक्षो मजयोमृदुमानसः ।। धर्मप्रभावना शीलः इत्यादिगुणसागरः । प्राचार्यपदघीयोग्यः शिष्योगुरोरनुमाया । ६४०।।
अर्थ-जो शिष्य ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न है, महा बुद्धिमान है, महा तपस्वी है, चिरकाल का दीक्षित है श्रेष्ठ वक्ता है, सिद्धांत महासागर का पारणामी है, इन्द्रियों को पश करनेवाला है, अत्यन्त निर्लोभ है, धीर वीर है, अपने और दूसरों के मनको अच्छी तरह जानता है, जो गम्भीर है तस्वों का वेत्ता है चतुर है, जिसका मन कोमल है जो धर्मको प्रभावना करने में चतुर है और जिसका मन निश्चल है इसप्रकार जो अनेक गुणों का समुद्र है, ऐसा शिष्य गुरु की प्राज्ञानुसार आचार्य पदमी के योग्य होता है । ॥६३-६४०॥