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मूलाधार प्रदीप]
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[ तृतीय अधिकार . अर्थ-मुनियों को सबसे पहले अपना शरीर और पृथ्वी को शुद्ध कर लेना चाहिये, मनको शुद्ध कर लेना चाहिये फिर अपने हाथ जोड़कर दोनों परों को स्थिर रखकर खड़े होना चाहिये । उस समय उनके दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तर होना वाहिले और दोनो पैर सीधे रहने चाहिये । फिर प्रसन्न चित्त होकर मधुर स्वरसे शुद्ध और व्यक्त अक्षरों का उच्चारण करते हुए अपनी शक्तिके प्रमुसार चौदोसों तीकरों को स्तुति करनी चाहिये ।।१२३-८२४॥
___स्तुति का फलयतोहंदगुरणराशीनां स्तवनेन बुधोत्तमैः । सभ्यन्ते तत्समा सर्वेगुणाःस्वर्मोक्षदायिनः ।।२५।।
अर्थ- इसका कारण यह है कि भगवान प्ररहंतवेषके गुणोंके समूह की स्तुति करने से उत्तम बुद्धिमान पुरुषों को उन गुणों के समान ही स्वर्ग मोक्ष देनेवाले समस्त गुण प्राप्त हो जाते हैं ॥२५॥
____ स्तबन करने वालों को प्रशंसनीय पद प्राप्त होते हैं-- कोसनेनाखिला फोतिलोक्ये च ब्रमेस्तताम् । इन्द्रकि जिनादीनां कीर्तनीयं पदं भवेत् ।।
अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव के गुण कीर्तन करने से सज्जनों को समस्त शुभ कोति तीनों लोकों में भर जाती है तथा इन्द्र चक्रवर्ती और तीर्थकर के प्रशंसनीय पद प्राप्त हो जाते हैं ।१८२६॥
अरहंतदेवकी भक्ति करने से तीनों लोक में उच्च पद की प्राप्तिसम्पद्यतेऽर्हतां भक्त्या सौभाग्यभोगसम्पदः । पूनया त्रिजगल्लोके श्रेष्ठपूज्यपवानि च ॥२७॥
अर्थ-भगवान अरहतदेव की भक्ति करने से समस्त सौभाग्य और भोग संपदाएँ प्राप्त होती हैं तथा अरहंतदेव की पूजा करने से तीनों लोकों में श्रेष्ठ और पूज्य पर प्राप्त होते हैं ॥६२७।।
भगबान के ध्यान से मुक्ति स्त्री की प्राप्तिजिनानाध्यामयोगेन तीमकराविमूतयः । जायन्ते मुक्तिनार्यामा का वार्ता परसम्पदाम् ॥२८॥
अर्थ--भगवान अरहंतदेवका ध्यान करने से मुक्ति स्त्रीके साथ-साथ तीर्थकर की समस्त विभूतियां प्राप्त होती हैं फिर भला अन्य सम्पदामों की तो बात ही क्या है ॥५२॥