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मूलाचार प्रदीप]
( १३२ )
[ तृतीय अधिकार वे भगवान तीनों लोकों में 'सर्वोत्तम' कहलाते हैंमोहदरज्ञानवारित्रावरणर्घातिकर्मभिः । मुक्ता ये सोर्यकार उत्तमास्ते जगत्रये ॥१२॥
अर्थ-वे तीर्थकर परमदेव मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण और परित्रावरण (चारित्र मोहनीय वा अंतराय) इन धातिया कर्मोंसे रहित हैं इसलिये वे भगवान तीनों लोकों में सर्वोत्तम कहलाते हैं ।।१२।।
वे भगवान मेरे लिये समाधि को प्रदान करेंएवं गुणविशिष्टाये तीर्थनाथाजगरस्तुताः । तेमे विशन्तु बोधि च समाधि च स्वगुणान् परान् ।
अर्थ--इसप्रकार अनेक गुणों से सुशोभित और तीनों लोकोंके द्वारा स्तवन किये गये वे भगवान तीर्थंकर परमवेव मेरे लिये रत्नत्रय तथा समाधि को प्रदान करें तथा अपने अन्य गुणों को भी प्रवान करें ॥८१३।।
उक्त प्रार्थना को निदान नहीं समझना चाहियेनस्यावेतन्निवा हि किन्स्वसस्यमबाह्ययम् । एषाभाषा जिनेन्द्रेण प्रणीता कार्यसिद्धये ।.८१४॥
अर्थ- भगवान को इसप्रकार की स्तुति करने को "रत्नत्रय समाधि प्रदान करें" इसप्रकार कहने को निवान नहीं समझना चाहिये किंतु भगवान जिनेन्द्रदेव ने कार्य सिद्धि के लिये ऐसी भाषा को अनुभय भाषा कहा है ॥८१४।।
भगवान के कृतकृत्यपनायतस्तर्यन्चदातव्यं सर्वविद्वतादिकम् । हितं धर्मोपदेशादि तहतं तैजिनःसताम् ॥१५॥ प्रधुनावोतमोहास्तेकुतकृत्याजिनाधियः । नकिश्चिद्भवते लोफे विश्र्वाचतमातिगा नृणाम् ॥
अर्थ--इसका भी कारण यह है कि भगवान जिनेन्द्रदेवको भव्य जीवोंके लिये सम्यग्दर्शन, आत्माकी शुद्धता, व्रत हित धर्मोपदेश आधि जो कुछ वेना था वह सब कुछ वे भगवान भव्य सज्जनों को दे चुके । इस समय तो वे भगवान बोतराग हैं कृतकृत्य हैं जिनेन्द्र हैं और समस्त चिताओं से रहित हैं इसलिये वे अब इस संसारमें मनुष्यों को कुछ नहीं देते ।।८१५-११६॥
भक्त पुरुषों की यह प्रार्थना सफल ही होती हैअपवा प्रार्थनाषा भक्तिरागभरांकिता। सफला भक्तिकानां सद्धर्मार्जनाविष्यति ।।८१७।।
अर्थ-अथवा यो समझना चाहिये कि भगवान की ऐसी स्तुति करना हमें