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मूलाचार प्रदीप ]
( १३१ )
[ तृतीय श्रधिकार
इसलिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये ही वास्तव में तीर्थ हैं। इन रत्नत्रय स्वरूप तीर्थों को प्रवृत्ति वे तीर्थंकर ही करते हैं अथवा वे तीर्थंकर रत्नत्रयरूप महा तीर्थों से सुशोभित रहते हैं अथवा वे तोथंकर रत्नत्रयमय हो हैं ऐसे तीनों लोकों के स्वामी वे तीर्थंकर तीर्थ कहलाते हैं ।।८०५-८०६ ।।
भगवान को 'जिन' क्यों कहते हैं ?
जितमोहारिसन्तानः सतांमोहं जयन्ति ये । ते जिनाः घातिहन्तारः उच्यन्ते तेनहेतुना || ६०७ ॥
अर्थ - उन भगवान ने मोहरूपी शत्रुकी समस्त सन्तान जीत ली है अथवा वे भगवान सज्जन पुरुषों के मोहको भी जीत लेते हैं तथा वे भगवान घातिया कर्मों को नाश करनेवाले हैं इसलिये उनको जिन कहते हैं ॥। ८०७॥
भगवान 'अन्' क्यों कहलाते हैं ?
सर्वान् स्तुतिनमस्कारान् सत्कारावीननुनाकिनाम् । पंचकल्याणकाच च गमनं मुक्तिधामनि ॥ श्रन्यद्वा मानसन्मान येत्रार्हन्ति जिनेश्वराः । श्रहन्तस्तेन कथ्यते ह्यमुनाहेतुना किलाः ||८०६ ॥
अर्थ - अथवा वे भगवान जिनेन्द्रदेव मनुष्य और इन्द्रोंके द्वारा की जानेवाली समस्त स्तुतियों के समस्त नमस्कारों के योग्य हैं, पंचकल्याणकों में होनेवाली पूजा के योग्य हैं, मुक्ति स्थानमें गमन करने योग्य हैं तथा और भी संसार में जितना मान सन्मान है सबके वे योग्य हैं इन्हीं सब हेतुनों से वे भगवान अर्हन् कहलाते हैं । ||६०८-८०६॥
मुनियों के द्वारा भी वंदनीय हैं ?
कथ्यन्ते त्रिजगन्नार्थःकीर्तनीया न भूतलें । वद्याश्वमुनिभिः यः सन्मुक्तिमार्ग प्रदशितः ।। ८१० ।। अर्थ - जिन तीर्थंकर परमदेव ने श्रेष्ठ मोक्षका मार्ग दिखलाया है वे भगवान इस संसार में तीनों लोकों के इन्द्रों के द्वारा ही प्रशंसनीय नहीं हैं किन्तु मुनियोंके द्वारा भी वंदनीय गिने जाते हैं ।। ८१०||
भगवान केवलदर्शी तथा सर्वदर्शी क्यों कहलाते हैं ?
लोकालोकं समस्तं ये जानन्तिकैवलेन च । प्रपश्यन्ति दशा तस्मात्स्युस्तेकंवसिनोऽखिलाः ॥ अर्थ- ये भगवान केवलज्ञान के द्वारा समस्त लोक अलोक को जानते हैं इसलिये उनको केवली कहते हैं तथा केवल दर्शन के द्वारा वे समस्त लोक अलोक को देखते हैं इसलिये उनको केवलदर्शी वा सर्वदर्शी कहते हैं ।।६११॥