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मूलाचार प्रदीप]
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[ तृतीय अधिकार अर्थ-भगवान तीर्थंकर परमदेव दिव्य प्रौवारिक शरीरको धारण करनेवाले हैं संसार भरके समस्त नेत्रों को प्रिय हैं अत्यंत सौम्य हैं और करोड़ों सूर्योसे भी अधिक तेज को धारण करते हैं ऐसे लोणकरों के अत्यंत मनोहर श्वेत पोत प्रावि शरीर के रूप का वर्णन कर उनकी स्तुति करना अथवा अनेक शास्त्रों को जानने वाले जो ज्ञानी पुरुष इसप्रकार की स्तुति करते हैं उसको द्रश्य स्तवन कहते हैं ।।७६०-७६१॥
क्षेत्र स्तवन का स्वरूपकैलाशचलसम्मेवोर्जग्रतादिशमात्मनाम् । निरिणक्षेत्रभूमौनामहतांगुणवर्णनः ।।७६२॥ पूजास्तुति नमस्कारैर्यमाहात्म्यप्रशंसनम् । क्षेत्रस्तवः सविजेयःपुण्यनिर्वाणहेतुकृत् ॥७६३॥
अर्थ-भगवान अरहंतदेवके गुणों का वर्णन कर कैलाश पर्वत, सम्मेदशिखर, गिरनार आदि अरहंतों के शुभ निर्धाण भूमियों की पूजा स्तुति करना उनको नमस्कार करना और उनका माहात्म्य प्रगट करना क्षेत्र स्तवन कहलाता है। यह क्षेत्र स्तवन भी पुण्य और निर्वाण का कारण है ।।७६२-७६३॥
काल स्तवन का स्वरूपपंच कल्याणकैःसारः स्वर्गावतरणादिभिः । देवेन्द्रायिकृत स्वामहापुण्य निबंधनः ॥७६४॥ स्तुतिक्रियते तज्ज्ञः कल्याणगुणभाषणः । सर्वेषां तीर्थक मां कालःस्तवः स एव च ॥७६५॥
अर्थ-विद्वान लोग जो समस्त तीर्णकरों के स्वर्गावतार आदि पांचों कल्याणों के गुणों का वर्णन करते हैं इन्द्रादिक देवों ने जिस विभूतिके साथ कल्याणोत्सव मनाया है उसका वर्णन करते हैं उन कल्याणोत्सवों को महा पुण्य का कारण बतलाते हैं और सारभुत कहते हैं इसप्रकार जो पांचों कल्याणों के गुणों का वर्णन करते हैं उसको कालस्तवम कहते हैं ।।७९४-७६५।।
गुणों को देनेवाला भाव स्तवन का स्वरूपकेवलज्ञानदृष्टयाचा गुणा भन्सातिगाः पराः । विद्यन्लेयेहंता स्तोतु तानुक्षमोमादृशःकथम् ।। इत्यादि सद्गुणानांच भाषणं यविधीयते । तद्गुणाय बुर्भावस्तवःसतद्गुणप्रवः ॥७९॥
__ अर्थ-"भगवान अरहंतदेव के केवलज्ञान केवलवर्शन मावि अनंत गुण हैं उन सबकी स्तुति करने के लिये मेरे समान बुद्धिहीन पुरुष कभी समर्थ नहीं हो सकते" इस प्रकार विद्वान लोग उन गुणों को प्राप्ति के लिये जो अरहंतवेव के गुणों का निरूपण करते हैं मह उन गुणों को देनेवाला भावस्तवन कहलाता है ॥७९६-७९७||