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मूलाचार प्रदीप]
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[ तृतीय अधिकार अर्थ-यही समझकर चतुर पुरुषों को मन-वचन-कायको शुद्धकर मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रयत्नपूर्वक प्रतिटिन यह सारा मोक्ष त्रिया मारण करना चाहिये । ८७०॥
शुभज्ञान प्राप्ति के लिये कुछ प्रश्नप्रवासरे मुमेधावी शिष्यः पृच्छति सावरः । प्रणम्य स्वगुरु मूर्माकांश्चित्प्रश्नान्शुभारतथे ।।
__अर्थ- इसी बीच में किसी चतुर शिष्य ने अपने गुरुके आगे मस्तक झुकाकर प्रादर के साथ शुभ ज्ञानको प्राप्ति के लिये कुछ प्रश्न पूछे ।।८७१॥
कृतिकर्म का विशेष स्वरूपभगवन् कृतिकर्मान कौदर्श वा कियद्विधम् । कस्तेषां तद्धिमतधयं विभिना केनवाखिलम् ।।८७२।। अवस्था विषये कस्मिन् कतिधारान्शुभप्रदान् । कृतिकर्मण एवात्य कियस्यवनतानि वे ।।८७३॥ झियन्ति व शिरांसि स्पुरावानिकियंति छ । कति दोषिमुक्तं वा कर्तव्य कृतिकर्मतत् ॥१७॥
अर्थ-वह पूछने लगा कि हे भगवन् यहां पर कृतिकर्म से क्या अभिप्राय है, वह कितने तरह का होता है, उनका विधान किन-किनके लिये है था किनको करना चाहिये, किस विधिसे करना चाहिये, किस अवस्था में कितने बार यह शुभप्रद कृतिकर्म करना चाहिये, कितने नमस्कार करने चाहिये, कितनी शिरोनति करनी चाहिये, कितने आवर्त करने चाहिये, और कितने दोषों से रहित यह कृतिकर्म करना चाहिये । ७२-०७४॥
गुरु का उसरइमां सरप्रश्नमाला मेऽनुपहायसमाविश । ततःप्राह गुरुविश्व हितोच क्तं एवं पयः ।।७।।
___ अर्थ-हे प्रभो ! मेरा अनुग्रह करने के लिये इन सब प्रश्नों का उत्तर वीजिये। यह सुनकर सब जीवों का हित करनेवाले गुरु नोचे लिखे अनुसार कहने लगे ॥७॥
कृतिकर्म का स्वरूप सुनने के लिये प्रेरणाश्रुणु धीमन् विधाय त्वं स्ववशे हृवयं निजम् । जिनागम बलाढो कृतिकर्मविधीन्परान् ॥१७६।।
अर्थ-कि हे बुद्धिमान् ! तू अपने मनको वशमें कर सुन । मैं जिनागम के अनुसार कृतिकर्म की उत्कृष्ट विधियों को कहता हूं ॥८७६॥