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मूलाचार प्रदीप]
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[ तृतीय अधिकार भिन्न कर डालते हैं काट डालते हैं उसका कृतिकर्म कहते हैं ।।८४६।।
चितिकर्म का लक्षणपापारिनाशनोपायो येनसंघीययेतराम् । तीर्थकृत्वादिसत्पुण्यं चितिकर्म तदेव च ।।८४७।।
अर्थ--स्तुति के जिन अक्षरों से पापरूप शत्रके नाश करने का उपाय किया जाता है, अथवा तीर्थकर को विमूति को देनेवाला पुण्य संचय किया जाता है उसको चितिकर्म कहते हैं ।।८४७॥
पूजाकर्म का स्वरूप---- पूज्यन्तेयेनसर्वेऽत्राहदायाःपरमेष्ठिनः । विवाभ्युदयकारस्तपूजाकर्म कथ्यते ॥४८॥
अर्थ-जिन अक्षरों के समुदाय से समस्त फल्याणों को फरनेवाले समस्त विभूतियों को देनेवाले अरहंत आदि पांचों परमेष्ठियों की पूजा की जाती है उसको पूजा कर्म कहते हैं ।।८४८।।
विनय कर्म का स्वरूपपिनीयन्तेऽष्टकर्माणि येनान्तमुवयादिना । तस्याहिमयकत्रि समस्तकायंसाधकम् ।।४।।
अर्थ-स्तुति के जिन अक्षरों से आठों कर्मों को उवय उदीर्णा में लाकर नष्ट कर दिया जाता है उसको समस्त कार्योंको सिद्ध करनेवाला विनयकर्म कहते हैं ॥८४६।।
इस विनय कर्म से पाठों कर्म नष्ट होते हैंयस्मादिनाशयत्याशु यःकर्माष्टकमंजसा । तस्माद्विलीनससारास्तमाहूविनयं परम् । ८५०॥
अर्थ--- इस विनय से आठों कर्म बहुत ही शीघ्र नष्ट हो जाते हैं इसीलिये संसार को नाश करनेवाले भगवान परहंतवैव इसको विनय कहते हैं ।।८५०॥
यही विनय मोक्षका कारण हैपूर्वविश्वजिनाधीशैः सर्वासु कर्मभूमिषु । सतो सुमुक्तिलाभाय विनय प्रतिपादितः ।।८५१।।
अर्थ-पहले जितने भी तीर्थकर हुये हैं उन सबने समस्त कर्म भूमियों में सज्जनों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये मोक्ष का कारण एक विनय ही बतलाया है । ॥५१॥
विनय के ५भेद-- लोकानुवृत्तिनामानिमित्तः कामहेतुकः । भयाल्यो मोक्षसंन:पंचसिविमपोमतः ॥५२॥