________________
मूलाचार प्रदीप]
( ११६)
[ तृतीय अधिकार अर्थ-कोई समय शीत उष्णता से रहित समान रूप तथा शुभ होता है । कहीं पर छहों ऋतुओं का परिवर्तन होता रहा है, कहीं शीतता अधिक होती है, कहीं उष्णता अधिक होती है किसी समय अंधेरा ही रहता है । इसप्रकार के सुख दुःख देने वाले समयों में रागढष नहीं करना रागद्वेष का सर्वथा त्याग कर देना सा बुद्धिमानों के द्वारा काल सामायिक कहलाता है यह काल सामायिक काल से उत्पन्न होने वाले समस्त पापों का नाश करनेवाला है ॥७२७-७२८।।
___ भाव सामायिक का स्वरूपसर्वजीवेषु मैश्यादियुक्तोशुभापरान्मुखः । शुभो रागाविनिमुक्तो धर्मध्यानादितस्परः ३७२६।। शुद्धः समगुणापन्नो भावो यो धर्मितां महान् । भावसामायिक तद्धि हितोत्यचोषवारकम् ।।७३०।।
अर्थ-समस्त जीवों में मंत्री प्रमोद कारुण्य आदि भावों को धारण करना, अशुभ परिणामों से सदा पराड मुख रहना, रागाविक शुभ परिणामोंका भी त्याग करना धर्मध्यानमें सदा तत्पर रहना, समता गुणसे सुशोभित शुद्ध परिणामों का धारण करना प्रावि रूपसे जो बुद्धिमानों के उत्कृष्ट परिणाम होते हैं उसको भाव सामायिक कहते हैं । यह भाव सामायिक मनसे उत्पन्न होनेवाले समस्त दोषों को दूर करनेवाला है । ॥७२६-७३०॥
६ प्रकार का सामायिक उत्कृष्ट हैएतः षभियचनिक्षेपसपायनिनां परम् । सामयिकं शुभय्यान कारणं जायतेतराम् ।।७३१।।
अर्थ-शानी पुरुषों के ऊपर लिखे अनुसार छह प्रकारके उपायरूप निक्षेपोंसे उत्कृष्ट सामायिक होता है तथा वह शुभ ध्यानका कारण होता है ।।७३१॥
A आत्मामें लीन होना सर्वोत्कृष्ट सामायिकदर्शनज्ञानचरित्रतयोभिः सह चात्मनः । ऐक्य गमन भत्सर्ष यत्तत्सामायिकं महत् ।।७३२।।
अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान, सम्यकचारित्र और सम्यक तपाचरणके साथसाथ प्रात्मा की एकता हो जाना प्रात्मामें प्रत्यंत लीन हो जाना सर्वोत्कृष्ट सामायिक कहलाता है ॥७३२॥
B सर्वोत्कृष्ट सामायिक का स्वरूपनिजिताखिल घोरोपसर्गतीव्रपरीषहः । वतैः समितिगुप्ताचं : सर्वेश्च नियममः ॥७३३॥ सुभावनाखिलः सारः शुभध्यानरलंकृतः । यः सर्वत्र समारूढः सोऽन्न सामायिको महान् ।।७३४।।