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मूलाचार प्रदीप]
( १०८ )
[तृतीय अधिकार कोमल रेशमी वस्त्रों का स्पर्श करना आदि सब ब्रह्मचर्यको नाश करनेवाला है इसलिये व्रती पुरुषों को काले सर्प वा कांटों के समान समझकर कभी इनका स्पर्श नहीं करना चाहिये ॥६६४-६६५॥
कोमल गद्दों पर बैठने का निषेधकोमले गद्यकावो ये कुर्वन्ति शयनासनम् । स्पर्शनेन्द्रियलोपटयात्तेषां ब्रह्मवतं कुतः ।।६६६।।
अर्थ-जो पुरुष कोमल गद्दों पर बैठते हैं वा सोते हैं उनके स्पर्श इंद्रिय को लंपटता होने के कारण ब्रह्मचर्य व्रत कभी नहीं ठहर सकता ॥६६६॥
ब्रह्मचर्य के पालन हेतु कठिन तखते पर सोना चाहियेमत्थेति कोमले रम्ये शर्मदे शयनासने । ब्रह्मवतायिभिर्जातु न कार्य शयनासनम् ॥६६७।। किंतु शिलाश्ममूम्पादौ कठिने फलकाविषु । भात लासन कार्य निसहानी सुनाणे ।।६:४!!
अर्थ-यही समझ कर ब्रह्मचर्य वतको इच्छा करने वाले पुरुषों को कोमल मनोहर और सुख देनेवाले प्रासन पर कभी नहीं बैठना चाहिये और न ऐसी शय्या पर सोना चाहिये किंतु अपना ब्रह्मचर्य पालन करने के लिये तश निद्रा को दूर करने के लिये शिला पत्थर भूमि वा कठिन तखते पर सोना चाहिये और उसो पर बैठना चाहिये ॥६६७-६६८।।
ग्रीष्म ऋतु में शीत स्पर्श से राग छोड़ देना चाहिएपद्यनोहित वृत्यान वायुः स्पृशति शीतलः । रुमे वपुस्तथाप्याशु रागस्त्याज्योऽशुभप्रदः ।।६६६।।
____ अर्थ-यदि प्रीष्म ऋतु में मुनियों के शरीर को बिना उनकी इच्छाके प्रनायास शीतल वायु स्पर्श करे तो मुनियों को उसी समय उस शोत स्पर्श से अपना अशुभ उत्पन्न करनेवाला राग छोड़ देना चाहिये ।।६६६।।
शीत ऋतु में शीत स्पर्श से द्वेष छोड़ देना चाहिएशीतकाले थया शोतो मत्स्पृशति योगिनम् । तत्रापि न मनागद्वेषं करोति मुनिपुंगवः ॥६७०।।
__अर्थ-यदि किसी मुनिके शरीर को शीत ऋतुमें शीतल वायु स्पर्श कर ले तो भी उन मुनिराज को अपने हृदय में किंचित् भी द्वेष नहीं करना चाहिये ।।६७०।। बहुत से पदार्थ स्पर्श करने में सुख एवं दुःख देनेवाले हैं उनमें राग और द्वेष नहीं करना चाहिएइत्याया बहुधा स्पर्शाः सुख दुःख विधायिनः । ये तानासाथ योगोन्ना रागद्वषो न कुर्वते ।।