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मूलाचार प्रदीप]
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[ तृतीय अधिकार सकता उसी प्रकार जो मनुष्य इन्द्रिय सुख और मोक्ष दोनों को प्राप्ति चाहते हैं उनका अम्भ व्यर्थ ही समझना चाहिये ।।७१०॥
चारित्र और तप रूपी भयंकर तलवार से इन्द्रिय शत्रुओं को जीत लेना चाहिएजात्येति बहुयत्नेन दक्षाः स्वार्थसिद्धये । खारीन् जयन्तु चारित्रतपखङ्ग भयंकरः ॥७११॥
___ अर्थ-यही समझकर चतुर लोगों को अपने समस्त पदार्थों की सिद्धि करने के लिये चारित्र और तप रूपी भयंकर तलवार से बड़े प्रयत्न के साथ इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जीत लेना चाहिये ।।७११॥
वे ही मुनिराज धन्य हैं जो इन्द्रिय शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं
पन्यास्ते भुवने श्रये च महिता बंधा स्तुता योगिनो, ये चारित्ररणावनौ सुविषमे स्थित्वापि कृत्वाजितम् । उप्रोग्रं सुलपो धतुर्गुणयुतं सम्यग्दगार्थ : शरः,
तोक्णं नन्ति खलान् त्रिलोक जमिनः पंचाक्षशत्रून् द्रुतम् ॥७१२।।
अर्थ-इस संसार में जो मुनिराज अत्यंत विषम ऐसे चारित्ररूपी रणांगनमें ठहर कर तथा उप-उग्र श्रेष्ठ तपश्चरण रूपी प्रत्यंचा सहित धनुष को चढ़ा कर सम्यरवर्शन प्रावि तीक्ष्ण वारणों से अत्यंत दुष्ट और तीनों लोकों को जीतने वाले ऐसे पांचों इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को शीघ्र ही मार डालते हैं वशमें कर लेते हैं वे ही मुनि धन्य हैं तीनों लोकों में पूज्य हैं वे ही वंदनीय हैं और वे ही स्तुति करने योग्य हैं ॥७१२।।
यम और नियमों से इन्द्रिय-जन्य करना चाहिएविश्वार्यान् विश्ववंधान जिनमुनिवृषभः स्वीकृतान् धर्ममूलान्, पापाध्नान् मुक्तिकतून शिवसुख जलधीन स्वर्गसोपान भूतान् । झानध्यानाग्निहेतून् सकलगुणनिधीन चित्तमातंगसिंहान,
सेवावमुक्ति कामाः यमनियमचर्यः कृत्स्नपंचाक्षरोषान् ।।७१३।।
अर्थ-समस्त पांचों इन्द्रियों का निरोध तीनों लोकों में पूज्य है, सबके द्वारा चंदनीय है, भगवान तीर्थंकर और गणधर आदि श्रेष्ठ मुनियों ने भी इसको स्वीकार किया है, यह पंचेन्द्रियों का निरोध पापों को नाश करनेवाला है, धर्मका मूल है, मोक्ष को प्राप्ति करानेवाला है, मोक्ष के अनंत सुखका समुद्र है, स्वर्ग की सोढ़ी है, ज्ञान और ध्यान का कारण है समस्त गुणों का निधि है और मन रूपी हाथी को वश करने के