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मुलाचार प्रदीप ]
( १०७ )
रसों का त्याग पूर्वक रसना इन्द्रिय का जय
अर्थ - यही समझकर मुनियों को यम नियम धारण कर बड़े प्रयत्न के साथ दुर्धर ऐसी रसना इन्द्रिय को जीतना चाहिये ।। ६६० ।।
मत्थेति मुनयो यत्नात् दुर्द्धरं रसनेन्द्रियम् । जयंत्या मूलं रसत्यागतपोयमैः ।। ६६०।। रसों का त्याग कर तथा तपश्चरण और समस्त पापों को मूलकारण और अत्यन्त
[ तृतीय अधिकार
जिल्ला इन्द्रिय का निरोध अत्यन्त आवश्यक क्यों ?
स्नानर्थपरंपरापरं पंचाक्षशत्रगृहं कर्मारण्यजलं निहत्य विषमं जिह्न क्रियारिखसम् । घौरे तीव्रतरस्तपोभिरखिलं जिल्ला निरोधं गुणं सेवध्वं यतयो भवारि ममनं शेषाक्ष विध्वंसकम् ॥ अर्थ - यह जिह्वा इन्द्रिय रूपी शत्रु अत्यंत दुष्ट है, समस्त अनयों की परंपरा को देनेवाला है, पांचों इंद्रिय रूपी शत्रुओं का घर है, कर्मरूपी वनको बढ़ाने के लिये जल के समान है और अत्यंत विषम है । इसलिये मुनियों को अत्यंत घोर और अत्यंत तीव्र तपश्चरर के द्वारा इस जिह्वा इंद्रिय को अपने वश में कर लेना चाहिये और जन्म मरण रूप संसार शत्रुको नाश करनेवाला तथा समस्त इंद्रियों को निरोध करने वाला ऐसा जिह्वानिरोध नामका गुण सदा पालन करते रहना चाहिये ।।६६१ ॥
स्पर्शन इन्द्रिय निरोध का स्वरूप
कशी मृदुशीतोष्णाः स्निग्धरूक्षो गुगलंघुः । जीवाजीव भवा एते त्राष्टौ स्पर्शाः शुभाशुभाः ।। अमीषां स्पर्शने योत्राभिलाषो हि निवार्यते । स्पर्शनेन्द्रियरोधः स केवलं योगिनां महान् ॥ ६६३ ॥
अर्थ- कठोर, कोमल, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष तथा हलका भारी ये जीव जोव से होनेवाले आठ स्पर्श हैं। ये आठों ही स्पर्श शुभ भी हैं और अशुभ भी हैं । मुनिराज जो इन आठों प्रकारके स्पर्शो में अपनी अभिलाषाका त्याग कर देते हैं उसको स्पर्शनेन्द्रिय का निरोध कहते हैं यह स्पर्शनेन्द्रिय का निरोध मुनियों के लिये सर्वोत्कृष्ट
।।६६२-६६३।।
स्पर्श इन्द्रिय को प्रिय पदार्थों को कांटे के समान समझकर इनके सेवन का निषेधrate कोमning गद्यकातूलिकादिषु । मनुष्वासनशय्यादि संस्तरेष्य कारिषु ।। ६६४ || पट्टा दिवस्त्रेषु स्पर्शनं ब्रह्मनाशकृत् । प्रतिभिर्जात कार्य न कालाहिकंटकेष्विव ॥ ६६५ ॥ अर्थ- स्त्री वा पुरुष को कोमल शरीर के स्पर्श करना रुई के कोमल गद्दका स्पर्श करना, पाप उत्पन्न करनेवाले कोमल शय्या आसन आदि बिछोनों पर सोना वा