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मलाचार प्रदीप ]
( १०५ )
[ तृतीय अधिकार
प्रकारका शुद्ध आहार प्राप्त होनेपर मुनियोंको कभी राग नहीं करना चाहिये ।। ६४८ || मनोश और अमनोज्ञ पदार्थों के सेवन में रागद्वेष का प्रभाव -
तिक्तं च कटुकं चाम्लं कषायं मधुरं रसम् । मनोज्ञं वेतरं प्राप्य रागद्व ेषौ त्यजेद्यतिः २६४६ ॥ अर्थ - तिक्त कटुक कषायला खट्टा और मीठा ये रस हैं ये रस मनोज्ञ और अमनोज्ञ दोनों प्रकारके होते हैं इनको पाकर मुनियों को राग द्वेषका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ||६४६ ॥
भिक्षावृत्ति से प्राप्त भोजन में रागद्वष का निषेध
सरसं वार संस्त्यक्तं क्षारं वा क्षारवजितम् । उष्णं वा शीतलं भद्रं रसनाथ सुखावहम् ॥६५० ॥ श्रनिष्टं वा यथालब्ध माहारं भिक्षयानघम् । माहारन्ति तनुस्थिस्यै त्यक्तरागादियोगिनः ॥ ६५१ ॥
अर्थ - राग द्वेषका सर्वथा त्याग करनेवाले मुनि अपना शरीर स्थिर रखने के लिये सरस वा नीरस, लवरग सहित वा लवण रहित, उष्ण वा शीतल रसना इन्द्रिय को सुख देने वाला वा अनिष्ट जंसा भिक्षा वृत्तिसे आहार मिल जाता है उसी निर्दोष बहार को वे ग्रहरण कर लेते हैं ।।६५०-६५१ ।।
प्रासु आहार से कर्म का अभाव --
श्लोक नं० ६५२ मूल प्रति में ही नहीं है ।
अर्थ-वे मुनिराज पारणा के दिन इसप्रकार का जो प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं उससे उनके कर्मों का बंध नहीं होता किंतु उससे ही उनके कर्मों की निर्जरा होती है ।।६५२ ।।
राग
पूर्वक आहार का निषेध
एवं ये प्राकाहारं भजन्ति पारणे क्वचित् । सेखों न तत्कृतो बंघः कुतः संधरनिर्जरे । ६५३ ।। अर्थ - इस संसार में जो मूर्ख यति रागद्वेष पूर्वक आहार लेते हैं उनके पदपद पर कर्मोंका बंध होता है फिर भला उनके संक्षर और निर्जरा किस प्रकार हो सकते हैं अर्थात् कभी नहीं होते
।।६५३॥
जिल्ला इन्द्रिय राक्षसी के समान है
जिह्वा विनिजिता येन सर्वभक्षण राक्षसो । तस्य समीहितं सिद्ध यांति सर्वन्द्रिया वशम् || अर्थ - यह जिल्ला इन्द्रिय सर्व भक्षण करने के लिये राक्षसी के समान है ।